सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT)




सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (Information & Communication Technology- ICT)



              सूचना और संचार प्रौद्योगिकी, जिसे आम तौर पर आईसीटी (ICT) कहा जाता है, का प्रयोग अक्सर सूचना प्रौद्योगिकी (IT) के पर्यायवाची के रूप में किया जाता है। यह आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी में दूरसंचार (टेलीफोन लाइन एवं वायरलेस संकेतों) की भूमिका पर जोर देती है। आईसीटी में वे सभी साधन शामिल होते हैं जिनका प्रयोग कंप्यूटर नेटवर्क एवं हार्डवेयर में और साथ-ही-साथ आवश्यक सॉफ्टवेयर सहित सूचना एवं संचार का संचालन करने के लिये किया जाता है। दूसरे शब्दों में, आईसीटी (ICT) के अंतर्गत आईटी (IT) के साथ-साथ दूरभाष संचार, प्रसारण मीडिया और सभी प्रकार के ऑडियो और वीडियो प्रक्रमण एवं प्रेषण शामिल होते हैं। यदि यह कहा जाए कि संचार प्रौद्योगिकी मानवीय प्रगति और मानव के सर्वांगीण विकास का केन्द्रीय तत्त्व है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। इस प्रौद्योगिकी ने मानवीय विकास की असीम संभावनाओं के द्वार खोल दिये हैं। यह प्रौद्योगिकी न सिर्फ व्यक्तियों अपितु राष्ट्रों और सभ्यताओं के बीच संवाद को भी प्रोत्साहन प्रदान करती है। दूरसंचार, संचार प्रौद्योगिकी का मुख्य रूप है, जिसमें सूचनाओं का संप्रेषण, विद्युत चुम्बकीय माध्यम द्वारा होता है। दूरसंचार के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सूचनाओं, जैसे ध्वनि एवं संगीत, चित्र व वीडियो, कम्प्यूटर फाइलों आदि को संप्रेषित किया जा सकता है।


★  संचार के प्रकार (Types of communication) :-


1. संप्रेषण विधि के आधार पर संचार को दो भागों में बाँटा जा सकता है :-

                            (i) एनालॉग संचार

                            (ii) डिजिटल संचार 


 ● एनालॉग संचार (Analog Communication) :– 

               एनालॉग संचार में सूचना को सतत संकेतों के रूप में संप्रेषित में किया जाता है। इन संकेतों में तरंगों के विभव (Potential) और धारा में लगातार परिवर्तन होता रहता है। Analog Signal नियमित electrical signal हैं जो समयनुसार बदलते रहता हैं, यह परिवर्तन Non-Electric Signal का अनुसरण करता हैं टेलीफ़ोन पर की जाने वाली बातचीत में हमारी आवाज को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजना Analog Signal के माध्यम से होता है। साइन वेव(Sine Wave) भी एनालॉग सिगनल का एक अच्छा उदाहरण है, Human Voice, Music, Video आदि एनालाग सिग्नल के उदाहरण है। एनालाग सिग्नल की मुख्य कमी यह है कि इसमें High Quality Transmission नहीं हो पाता है तथा गलतियों की संभावना अधिक होती है।



● डिजिटल संचार (Digital Communication):-

ये Irregular (अनियमित) होते हैं। ये Signal अलग-अलग steps में change होते रहते हैं, विभिन्न levels या values के साथ यह pulse या digit रखता हैं। प्रत्येक pulse का मान स्थिर रहता है परन्तु एक digit से अगली digit में suddenly change होता हैं। Digital Signal के दो Amplitude होते हैं, जिन्हे हम nodes कहते हैं। जिसका value दो संभव value 0 या 1, उच्च या निम्न, सत्य या असत्य में से एक होता हैं, डिजिटल सिगनल में मानों की संख्या सीमित होती है।



2. संप्रेषण माध्यम के आधार पर भी संचार को दो भागों में बाँटा जा सकता है :-


(i)  तार सहित संचार (Wired Communication)


(ii)  बेतार संचार (Wireless Communication)


 * तार सहित संचार (Wired Communication) :-

               इस संचार में तरंग हमेशा चालक के माध्यम से होने वाले विद्युत प्रवाह से जुड़ी होती है। इस संचार में भौतिक तारों का प्रयोग किया जाता है, जो मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं- 

(i) खुले तार युग्म (Open Wire Pair), 

(ii) को-एक्सियल केबल (Coaxial Cable), 

(iii) प्रकाशीय तंतु (Optical Fibre)


 ● खुले तार युग्म (Open Wire Pair) :-

                इसमें कुचालकों की परत चढ़े ताँबे के दो तार होते हैं जो दो समानान्तर चालकों के रूप में कार्य करते हैं। ताँबे के तार की यह समानान्तर व्यवस्था एक ऐसी प्रसारण व्यवस्था को जन्म देती है जो तड़ित (Lightning Bolt) जैसी बाधाओं के प्रति कम संवेदनशील होती है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह सस्ता होता है और तार बिछाना भी आसानी से संभव हो जाता है। किन्तु इसकी कमी यह है कि इसकी क्षमता सीमित होती है व आँकड़ों के संप्रेषण की दर अत्यंत धीमी होती है। यह संकेतों को बिना रिपीटर के कुछ किलोमीटर तक ही ले जा सकता है। इसका प्रयोग मुख्यतः टेलीफोन सेवा में किया जाता है। 


को-एक्सियल केबल (Co-axial Cable) :- 

                 खुले तार युग्म की कमियों को दूर करने के लिये को-एक्सियल केबल प्रयोग में लाई जाती है। इसमें संकेतों में विकिरण हानि बहुत कम होती है और यह बाह्य अवरोध के प्रति बहुत कम संवेदनशील होती है। को-एक्सियल केबल के केन्द्र में तांबे का तार चालक के रूप में होता है। इसके चारों ओर तार की जाली रहती है, जिसे शील्ड (Shield) कहते हैं। ताँबे के तार व शील्ड के बीच टेफ्लॉन या पॉलीथीन का प्रयोग कुचालक के रूप में किया जाता है। को-एक्सियल केबल का प्रयोग टीवी सिग्नलों के लिये किया जाता है। 


प्रकाशीय तंतु (Optical Fibre) :-

             प्रकाशीय तंतु काँच अथवा सिलिका के पतले रेशे होते हैं, जो प्रकाश के माध्यम से तीव्र और बेहतर संचार स्थापित करने में मदद करते हैं। प्रकाशीय तंतु प्रकाश के पूर्ण आंतरिक परावर्तन (Total Internal Reflection) के सिद्धांत पर कार्य करता है, जिसमें प्रकाश स्वतः परावर्तित होकर संचरण करता रहता है। प्रकाशीय तंतुओं के माध्यम से संदेश भेजने के लिये सबसे पहले संदेश को प्रकाशीय संकेतों में परिवर्तित किया जाता है, फिर प्रेक्षक ट्रांसमीटर इन प्रकाशीय संकेतों को प्रकाशीय तंतुओं के माध्यम से प्रसारित करता है। गन्तव्य स्थान पर डिकोडिंग प्रक्रिया द्वारा इन प्रकाशीय संकेतों को डिजिटल या विद्युत संकेतों में बदला जाता है, जिन्हें कंप्यूटर/टेलीफोन समझ सकता है।


                 यद्यपि संचार की प्रक्रिया के लिये प्रकाश के प्रयोग के आरंभिक संकेत 1870 ई. में ग्राहम बेल के प्रयोगों में ही मिलने लगते हैं किन्तु प्रकाशीय तंतुओं का सैद्धान्तिक ज्ञान 1920 के आस-पास विकसित हुआ तथा इसका तीव्र व्यावहारिक विकास 1960 के पश्चात् प्रांरभ हो गया। इस प्रणाली के कई लाभ हैं, जो इस प्रकार हैं:-


• प्रकाश के संचरण में प्रतिरोध की समस्या पैदा नहीं होती, जो विद्युतधारा आदि के संचरण में होती है। 


• प्रकाश के पूर्ण आंतरिक परावर्तन के गुण के कारण संकेतों को बार-बार तीव्र बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जिससे ऊर्जा की खपत कम हो जाती है। 


• प्रकाशीय तंतुओं की क्षमता संचार के अन्य माध्यमों से काफी अधिक होती है। इसकी प्रत्येक केबल में लगभग 24 तंतु होते हैं और प्रत्येक तंतु में प्रसारण के हजारों चैनल स्थापित किये जा सकते हैं। 


• इस पद्धति में किसी भी प्रकार की भूल की गुंजाइश नहीं होती। इसमें न तो जंग लगने जैसी समस्या आती है और न ही लघुपरिपथ (Short Circuit) जैसी समस्या होती है। 


• ये तंतु भार की दृष्टि से काफी हल्के होते हैं। अतः इन्हें स्थापित करना काफी आसान होता है। 


• प्रसारण तीव्र गति से होता है क्योंकि प्रकाश की गति विद्युत (को-एक्सियल केबल में विद्युत की गति प्रकाश की गति का लगभग 66% होती है) या ध्वनि की गति से बहुत अधिक तीव्र होती है।


प्रकाशीय तंतु की समस्याएँ (Problems of optical fibre) :-

•  प्रकाशीय तंतु अति शुद्ध काँच के बनाए जाते हैं जिनकी उपलब्धता तो विरल होती ही है, साथ ही उनका रख-रखाव भी चुनौतीपूर्ण होता है। इन तंतुओं के माध्यम से संचार-व्यवस्था कायम करने के लिये अत्यधिक सावधानी तथा दक्षता की जरूरत होती है क्योंकि यह व्यवस्था आन्तरिक प्रकृति में काफी जटिल है। हज़ारों संकेतों के समानान्तर संचरण के कारण इस प्रणाली में उच्च प्रबन्धन क्षमता की आवश्यकता पड़ती है। वर्तमान संचार व्यवस्था में प्रकाशीय तंतु का अत्यधिक उपयोग हो रहा है।


 ★ भारत की स्थिति (India’s Position) :-

                भारत में प्रकाशीय तंतुओं की व्यवस्था का पहला प्रयोग 1979 में पुणे में किया गया, जब दो स्थानीय टेलीफोन एक्सचेंजों में संचार संबंध को प्रकाशीय तंतुओं के माध्यम से स्थापित किया गया। वर्तमान में देश के अनेक संस्थानों में इस प्रौद्योगिकी से संबंधित अनुसंधान कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य है जिसने दूरसंचार प्रणालियों के लिये प्रकाशीय तंतु का उत्पादन किया है। वर्तमान में भारत में प्रकाशीय तंतु का निर्माण हिन्दुस्तान केबल्स लिमिटेड, नैनी (इलाहाबाद) तथा ओ. टी.एल. (O.T.L-Optical Telecommunication Limited), भोपाल द्वारा किया जा रहा है। इसके अलावा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में फाइबर के विभिन्न गुणों को विकसित करने की अत्याधुनिक तकनीकों का विकास किया जा रहा है।



* तार रहित संचार (wireless Communication) :-

                    तार रहित संचार में अंतरिक्ष का उपयोग माध्यम के रूप में किया जाता है तथा अंतरिक्ष तरंगों के लिए अपेक्षाकृत छोटे एंटीने की आवश्यकता पड़ती है।


• अंतरिक्ष तरंगें (Space Waves) :- ये तरंगें आकाशीय माध्यम द्वारा प्राप्तकर्ता के एंटीने तक पहुंचती है। इसके द्वारा अति उच्च – आवृत्ति वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगों (Electro Magnetic Waves) के माध्यम से संचार व्यवस्था स्थापित की जाती है। एंटीने को ऊंचा कर या निश्चित दूरी पर रिपीटर लगाकर इस तरह के संचार की दूरी को बढ़ाया जा सकता है क्योंकि पृथ्वी की सतह की वक्रता के कारण ये तरंगें अधिक दूरी तक उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। रिपीटर के अभाव में इससे अधिकतम 50-60 कि.मी. तक संचार स्थापित किया जा सकता है। चूंकि इन तरंगों की आवृत्ति अति उच्च होती है, इसलिये कम लंबाई के पैराबोलिक (Parabolic) एंटीने का उपयोग किया जाता है। टेलीविजन प्रसारण, उपग्रह संचार व माइक्रोवेव संचार में अंतरिक्ष तरंगों का प्रयोग किया जाता है। चूँकि ये तरंगें ट्रोपोस्फीयर में गमन करती हैं अत: इसे ट्रोपोस्फेरिकल प्रोपेगेशन (Tropospherical Propagation) भी कहते है 


• आकाशीय तरंगें (Sky Waves) :- आकाशीय तरंगें प्रेषित होने के पश्चात् आयनमंडल में पहुँचती हैं तथा आयनमंडल से टकराकर पुनः पृथ्वी पर वापस आती हैं। आयनमंडल से तरंगों का परावर्तन आकाशीय तरंगों की आवृत्ति पर निर्भर करता है। 40 मेगा टैज तक की तरंगों का परावर्तन ही आयनमंडल से हो पाता है। इससे उच्च आवृत्ति वाली तरंगें आयनमंडल को पार कर बाहर निकल जाती हैं तथा उन तरंगों का परावर्तन नहीं हो पाता है। आकाशीय तरंगों का प्रयोग उच्च आवृत्ति तरंगों की प्रसारण सेवा में किया जाता है।


• उपग्रह संचार (Satellite Communication) :- उपग्रह संचार में अंतरिक्ष में स्थित उपग्रह पर ट्रांसमीटर व रिसीवर लगा होता है, जिसे रेडियो ट्रांसपोंडर (Radio Transponder) कहा जाता है। यह ट्रांसपोंडर दो आवृत्तियों (सी बैंड तथा के-यू बैंड) पर कार्य करता है। पृथ्वी की सतह से प्रेषित संकेत उपग्रह के रिसीवर द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है जिसे अप लिंक (Up Link) कहा जाता है। ट्रांसपोंडर इस संकेत को संवर्धित कर पुनः ट्रांसमीटर के जरिये पृथ्वी की सतह पर भेज देता है, जिसे डाउन लिंक (Down Link) कहा जाता है। संकेतों को आपस में मिलने से रोकने के लिये अप लिंक तथा डाउन लिंक की आवृत्तियों में अंतर रखा जाता है। डाउनलिंक आवृत्ति अपलिंक आवृत्ति की अपेक्षा कम होती है। 


•भौम तरंगें (Ground wave):– ‘ये कम आवृत्ति वाली रेडियो तरंगें होती हैं, जो पृथ्वी की सतह के नज़दीक गमन करती हैं। ये दीर्घ तरंगदैर्ध्य वाली तरंगें हैं जो सतह की वक्रता के अनुसार ही गमन करती हैं।


• जी. एस. एम. (G.S.M. - Global System for Mobile) :-

             जी.एस.एम. एक ऐसी तकनीक है जिसमें फोन में एक सिम (SIM- Subscriberidentity Module) लगाकर मोबाइल फोन सेवा प्रदान की जाती है। इसमें बिना फोन सेट बदले अलग-अलग मोबाइल फोन सेवा प्रदाता कंपनियों की सेवाओं का लाभ उठाया जा सकता है। इसमें संकेत तथा ध्वनि हेतु डिजिटल पद्धति का प्रयोग किया जाता है। जी.एस.एम. का नेटवर्क चार विभिन्न आवृत्तियों पर कार्य करता है। अधिकांशत: जी.एस.एम. नेटवर्क 900 मेगाहर्ट्ज़ से 1800 मेगाहर्ट्ज के बीच कार्य करता है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व के मोबाइल फोन बाजार में जी.एस.एम. की हिस्सेदारी ही सर्वाधिक है।


• सी.डी.एम.ए. (C.D.M.A. - Code Division Multiple Access):-

         सी.डी.एम.ए, एक ऐसी तकनीक है जिसमें सिम (SIM- Subscriber Identity Module) का प्रयोग किये बगैर मोबाइल फोन . सेवा प्रदान की जाती है। इसमें सूचनाएँ फोन में पहले से ही प्रोग्राम की जाती हैं। इसमें एक अलग तरह के कोड का इस्तेमाल किया जाता है ताकि प्रत्येक कॉल के बीच अंतर किया जा सके। इस तकनीक में विभिन्न सिग्नल एक ही ट्रांसमिशन चैनल से होकर गुज़रते हैं ताकि उपलब्ध बैंडविड्थ का अधिकाधिक उपयोग किया जा सके। किसी अन्य तकनीक की तुलना में इसमें ध्वनि और आँकड़ों की गुणवत्ता बेहतर होती है। यह तकनीक प्रत्येक प्रयोक्ता (User) को एक विशिष्ट आवृत्ति के साथ नहीं जोड़ती बल्कि प्रत्येक चैनल उपलब्ध स्पैक्ट्रम का प्रयोग करता है। यह उपलब्ध बैंडविड्थ को कई आवृत्तियों में बाँटकर एक साथ संचारित करता है। प्रयोक्ता उसमें से वांछित सूचना पृथक् कर सकता है।


• बैंडविड्थ (Bandwidth):- बैंड की अधिकतम तथा न्यूनतम आवृत्ति के बीच अन्तर। इसे प्रति सेकेंड में अभिव्यक्त संचार चैनल की क्षमता की माप के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।


• मोबाइल फोन तकनीक (Mobile Phone Technology) :-

            मोबाइल फोन तकनीक बेतार संचार (Wireless Communication) आधारित तकनीक है जिसमें रेडियो संकेतों को किसी ट्रांसमिशन टावर, एंटीना अथवा उपग्रह द्वारा भेजा व प्राप्त किया जाता है। इस तकनीक के लिये वृहत स्तर पर रेडियो ट्रांसमीटर/ रिसीवर का नेटवर्क आवश्यक होता है ताकि मोबाइल फोन सुचारू रूप से कार्य कर सके। सभी मोबाइल फोन सेवा प्रदाता कंपनियों के पास इस तरह का नेटवर्क होता है। जिस क्षेत्र में सेवा प्रदाता कंपनी द्वारा सेवाएँ प्रदान की जाती हैं, उस क्षेत्र को विभिन्न जोन में बाँट दिया जाता है, जिसे सेल (Cell) कहते हैं।


प्रत्येक सेल में एक रेडियो ट्रांसमीट/रिसीवर और माइक्रो-प्रोसेसर युक्त एक बेस स्टेशन होता है तथा सभी बेस स्टेशन आपस में एक-दूसरे से संचार स्थापित कर सकते हैं। मोबाइल फोन तकनीक में प्रत्येक प्रयोक्ता (User) के पास एक हैंडसेट होता है जो एक प्रकार का ट्रांसमीटर/रिसीवर ही होता है। हैंडसेट जिस बेस स्टेशन के प्रभाव क्षेत्र में होता है वहाँ से विद्युत चुम्बकीय तरंगों को भेज व प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक हैंडसेट प्रत्येक क्षण उस कंपनी के बेस स्टेशन को संकेत भेजता रहता है जिसका सिम कार्ड हैंडसेट में लगा होता है।  हैंडसेट से किसी नंबर को डायल करने पर संकेत विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में समीपवर्ती बेस स्टेशन तक पहुँचता है। इसके बाद बेस स्टेशन पर लगा कम्प्यूटर डायल किये गए नंबर को उस कंपनी के बेस स्टेशन को प्रेषित कर देता है, जहाँ उस नंबर की अवस्थिति होती है। वहाँ स्थित बेस स्टेशन उस नंबर वाले हैंडसेट को अलर्ट कर देता है और हैंडसेट का रिंगटोन बजने लगता है।


1जी तकनीक (1st Generation Technology) :-

              इस पीढ़ी में संचार नेटवर्क कम बैंडविड्थ वाले एनॉलॉग संचार नेटवर्क होते हैं। इनके माध्यम से वॉइस (Voice) तथा टैक्स्ट संदेशों (Text Msgs.) का आदान-प्रदान संभव होता है। ये सेवाएँ सर्किल स्विचिंग के साथ ही उपलब्ध होती हैं। फोन कॉल के शुरू होने के साथ ही इसकी पल्स रेट की गणना भी शुरू हो जाती है तथा कॉल समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाती है। उल्लेखनीय है कि 1जी (1st Generation) की संचार सेवाएँ शुरुआत में केवल कार आदि में ही लगाई जाती थी, क्योंकि इस समय इसका उपयोग करने वाले उपकरण (Devices) आकार में बड़े होते थे, जिन्हें हाथ में लेकर चलना या जेब में रखना संभव नहीं था।


2 जी तकनीक (2nd Generation Technology) :- 

             जी के संचार नेटवर्क की ही तरह 2जी नेटवर्क भी कम बैंडविड्थ वाला संचार नेटवर्क है। दोनों में मूलभूत अंतर यह है जानट कि 2जी नेटवर्क डिजिटल प्रौद्योगिकी पर आधारित है, इस कारण इनके माध्यम से संदेशों के आदान-प्रदान की गति में वृद्धि हो जाती है। 1जी की तरह 2जी नेटवर्क में भी कम बैंडविड्थ का प्रयोग किया जाता है। हालांकि 1जी नेटवर्क की तुलना में 2जी नेटवर्क की रेंज अधिक होती है। 1जी नेटवर्क की सुविधाएँ केवल देश की सीमा के अंदर उपलब्ध होती है, जबकि 2जी नेटवर्क अंतर्राष्ट्रीय सेवाएँ उपलब्ध कराता है।


 ★ 3 जी तकनीक (3rd Generation Technology):-

                     3जी तकनीक तीसरी पीढ़ी की मोबाइल फोन सेवा है जिसमें दूसरी पीढ़ी (2जी) की अपेक्षा अधिक तीव्र गति, उच्च आवृत्ति और बेहतर बैंडविड्थ प्रदान की जाती है। 3जी नेटवर्क पर उपभोक्ता 2 मेगाबाइट प्रति सेकेण्ड की गति से डाटा संप्रेषित कर सकते हैं जबकि 2जी में अधिकतम 144 किलोबाइट प्रति सेकेण्ड डाटा ही संप्रेषित हो सकता है। 3जी तकनीक 15 से 20 मेगाहर्ज बैंडविड्थ में कार्य करती है जबकि 2जी तकनीक अधिकतम 200 किलोह बैंडविड्थ में ही कार्य करती है। ध्यातव्य है कि बैंडविड्थ जितनी अधिक होगी, डेटा ट्रान्सफर की गति भी उतनी ही अधिक होगी। प्रयोक्ताओं (Users) के लिये 3जी सेवा इस अर्थ में लाभप्रद है कि वे हाई स्पीड इंटरनेट, फिल्में, वीडियो क्लिप, म्युजिक डाउनलोडिंग, वीडियो कान्फ्रेंसिंग, वॉयस व वीडियो डाटा ट्रान्सफर आदि सुविधाओं का लाभ (2जी के मुकाबले कई गुना अधिक) उठा सकते हैं।


 ★ 4जी तकनीक (4th Generation Technology) :-

                    4जी तकनीक मोबाइल फोन सेवा की चौथी पीढ़ी की तकनीक है, जो पूर्ण रूप से इंटरनेट प्रोटोकॉल पर आधारित सेवा होगी। इसमें वॉयस, डाटा और मल्टीमीडिया को समान गति से भेजा व प्राप्त किया जा सकेगा। 4जी तकनीक की गति 100 Mbps होगी, जबकि 3जी की गति 384 Kbps से 2 Mbps तक है। 3जी तकनीक वाइड एरिया नेटवर्क (WAN) अवधारणा पर कार्य करती है जबकि 4जी तकनीक लोकल एरिया नेटवर्क (LAN) की अवधारणा पर कार्य करेगी। 4जी तकनीक में उपभोक्ताओं को अति उच्च गुणवत्ता की ऑडियो व वीडियो सुविधा उपलब्ध हो सकेगी, डेटा ट्रान्सफर अति तीव्र गति से हो सकेगा व 3जी की तुलना में कीमतों में भी कमी आएगी। इस तकनीक में इंटरनेट प्रोटोकॉल आधारित सेवा होने के कारण वॉयस, डाटा और मल्टीमीडिया को एकसमान गति से प्रेषित करना व प्राप्त करना संभव हो सकेगा।


★  5जी तकनीक (5th Generation Technique) :-

                अभी देश में 4जी इंटरनेट सेवा ठीक से शुरू नहीं हो पाई है, लेकिन संभावना है कि 2020 के आसपास वायरलेस 5जी इंटरनेट सेवा अस्तित्व में आ जाएगी। यह 4जी की तुलना में कई गुना तेज़, स्मार्ट और इंटेलीजेंट भी होगी। 5जी पर दुनियाभर में कंपनियाँ काम में जुटी हैं। एक आम परंपरा है कि. प्रत्येक 10 वर्ष में वायरलेस में नई इंटरनेट सेवा लांच की जाती है। जी सेवा 1981 और 4जी सेवा 2011 में काम करने लगी थी।

              2020 में 85 प्रतिशत विश्व के पास 3जी सेवा होगी जबकि 60 प्रतिशत के पास 4जी। भारत में पहली 4जी सेवा एयरटेल द्वारा अप्रैल 2012 में कोलकाता में शुरू की गई थी। शीघ्र ही रिलायंस जियो 4जी सेवा भी आने वाली है। वर्तमान में देश में 3जी और 4जी सेवाओं का मूल्य लगभग समान है। 4जी में मौजूदा उपभोक्ता को नया सिम कार्ड दिया जाता है, जो 2-3जी क्षमता का भी होता है क्योंकि 4जी केवल डाटा के लिये ही होता है। फोन सेवा 2जी या 3जी नेटवर्क पर काम करती है।


 ★  जी.पी.आर.एस. (G.P.R.S.- General Packet Radio Service) :-

                जी.पी.आर.एस. डाटा स्थानांतरण की एक विधि है जिसमें जी.एस.एम. तकनीक का प्रयोग कर मोबाइल फोन द्वारा डाटा स्थानांतरण किया जाता है। पैकेट स्विचिंग के द्वारा उच्च गति से डाटा स्थानांतरण में इसका उपयोग किया जाता है। इसे 2जी या 3जी सेवा में प्रयोग में लाया जाता है। जब 2जी तकनीक में जी.पी.आर.एस. का उपयोग किया जाता है तो उसे 2.5जी की संज्ञा दी जाती है।


 ★ कन्वर्जेन्स (Convergence) :-

                     कन्वर्जेन्स से अभिप्राय एक ऐसी प्रणाली के विकास से है जिसमें विभिन्न तकनीकों व सेवाओं, जैसे-टेलीफोन, टी.वी., फैक्स, इंटरनेट, वीडियोफोन, वीडियो कान्फ्रेंसिंग आदि को समेकित कर एक ही माध्यम द्वारा उपभोक्ताओं तक पहुँचाया जाता है। इसके माध्यम से सूचना प्रौद्योगिकी, संचार प्रौद्योगिकी एवं प्रसारण सेवाओं को समन्वित कर एक ही चैनल से ग्राहकों तक पहुँचाया जाता है। कन्वर्जेन्स की अवधारणा के अन्तर्गत सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी से जुड़े सभी क्षेत्र, जैसे-टेलीफोन, ई-कॉमर्स, टेलीबैंकिंग, टेलीट्रेडिंग, टेलीएजुकेशन, टेलीमेडिसिन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टी.वी., रेडियो और सीडी प्लेयर आदि आते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कन्वर्जेन्स के अन्तर्गत एक ही उपकरण में कम्प्यूटर, इंटरनेट, टेलीविजन तथा मोबाइल फोन की सुविधा उपलब्ध होगी। टी.वी. कार्यक्रमों को इंटरनेट पर भी प्रेषित व प्रसारित किया जा सकेगा तथा इंटरनेट के माध्यम से टेलीफोन सेवाओं की सुलभता सुनिश्चित हो सकेगी। कन्वर्जेन्स को साकार करने में डिजिटल तकनीक की अहम भूमिका है। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी, संचार प्रौद्योगिकी एवं प्रसारण क्षेत्रों के लिये लाइसेंस, रजिस्ट्रेशन एवं नियमन संबंधी सभी निर्णय एक ही स्थान पर लिये जाने के उद्देश्य से कन्वर्जेन्स विधेयक-2001 लाया गया। इस विधेयक में ‘भारतीय संचार आयोग’ के रूप में एक स्वतंत्र तथा स्वायत्त वैधानिक निकाय की स्थापना का प्रस्ताव किया गया। साथ ही, इस विधेयक में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण अधिनियम, भारतीय दूरसंचार अधिनियम, 1885, बेतार टेलीग्राफी अधिनियम, 1933 तथा केबल टेलीविजन नेटवर्क नियामक अधिनियम, 1955 को समाप्त कर देने का प्रावधान किया गया था। इसके अलावा इसमें सूचना आधारित समाज के निर्माण हेतु एक मजबूत अवसंरचनात्मक ढाँचे के विकास का भी प्रस्ताव किया गया।


ए.एम. तथा एफ.एम. (AM and FM) :-

                प्रभावी एवं कुशल संचार के लिये तरंगों की आवृत्ति को परिवर्तित किया जाता है इसके लिये मॉड्युलेशन किया जाता है। मॉड्युलेशन के अंतर्गत कैरियर वेव एवं संदेश संकेत (Message Signal) होते हैं। कैरियर वेव उच्च आवृत्ति वाली तरंगें होती हैं, जबकि संदेश संकेत प्रायः निम्न आवृत्ति के। यदि संदेश संकेत कैरियर वेव के आयाम (Amplitude) को परिवर्तित करता है तो यह प्रक्रिया ए. एम. (Amplitude Modulation) कहलाती है, और यदि संदेश संकेत कैरियर वेव की आवृत्ति (Frequency) को परिवर्तित करता है तो यह प्रक्रिया एफ. एम. (Frequency Modulation) कहलाती है।


ब्लूटूथ (Bluetooth) :-

                ब्लूटूथ एक ऐसी वायरलेस तकनीक है जिसमें कम दूरी पर स्थित उपकरणों के मध्य आवाज़ और डाटा दोनों को स्थानान्तरित किया जाता है। इंफ्रारेड के द्वारा केवल दो उपकरणों को आपस में जोड़ा जा सकता है, जबकि ब्लूटूथ एक सीमित क्षेत्र में आने वाले प्रत्येक उस उपकरण से जुड़ने में समर्थ है, जो ब्लूटूथ तकनीक से युक्त है। ब्लूटूथ के माध्यम से मोबाइल फोन, टेलीफोन, लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर, प्रिंटर, डिजिटल कैमरा, मॉडेम तथा वीडियोगेम आदि उपकरणों को जोड़ा जा सकता है एवं उनके बीच सूचना का आदान-प्रदान किया जा सकता है। ब्लूटूथ तकनीक में उपकरणों को जोड़ने से संबंधित कार्यों पर दिशा का कोई प्रभाव नहीं होता है।


वाई-फाई (Wi-fi -Wireless Fidelity) :-

               वाई-फाई तार रहित संचार आधारित एक तकनीक है जिसके माध्यम से विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, जैसे मोबाइल फोन या कम्प्यूटर को वायरलेस नेटवर्क की सीमा के भीतर इंटरनेट से जोड़ा जा सकता है। वाई-फाई एरिया दो प्रकार का होता हैओपन और क्लोज। ओपन वाई-फाई का इस्तेमाल करने के लिये कोई भी स्वतंत्र है जबकि क्लोज वाई-फाई को उपयोग में लाने के लिये पासवर्ड की आवश्यकता होती है। इस तकनीक में सूचना के आदान-प्रदान के लिये रेडियो आवृत्ति तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। जिस क्षेत्र में वाई-फाई एक्सेस किया जाता है, उसे हॉट स्पॉट कहा जाता है। वाई-फाई का नकारात्मक पक्ष यह है कि इसमें कोई भी व्यक्ति इंटरनेट से जुड़ सकता है तथा इसके वायरलैस उपकरण प्राइवेसी को हैक कर तोड़ सकते हैं।


 ★ वाई मैक्स (WiMAX- Worldwide Interoperability for Microwave Access) :-

                  इस तकनीक में माइक्रोवेव लिंक के द्वारा लंबी दूरी तक वायरलेस सेवा के माध्यम से संचार स्थापित किया जाता है। इसके द्वारा ब्रॉडबैंड में इंटरनेट तथा अन्य सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। वाई मैक्स इंटरनेट और सेल्यूलर दोनों नेटवर्क पर काम करता है। वाई-फाई की रेंज जहाँ कुछ मीटर तक होती है, वहीं वाई मैक्स की स्पीड दस किमी. तक समान रहती है। यह वायरलैस कवरेज की क्षमता को दस से तीस गुना तक बढ़ा देता है। जहाँ लैपटॉप के लिये इसकी सीमा 5 से 15 किमी. होती है वहीं फिक्सड कंप्यूटर के लिये 50 किमी. होती है। इसकी डाउनलोड क्षमता 20 एमबीपीएस (Mbps) है एवं इसमें इंटरनेट पर जीपीआरएस, गेमिंग और डाउनलोड की सुविधा मौजूद है।


 ★ डी.टी.एच. (D.T.H.-Direct to Home) :-

            डी.टी.एच. टेलीविजन प्रसारण की एक तकनीक है जिसमें उपग्रह तथा टेलीविजन सेट के बीच किसी ट्रांसमीटर की आवश्यकता नहीं रहती। इस व्यवस्था के अन्तर्गत संचार उपग्रह पर लगे Ku- Band के माध्यम से संचार कायम किया जाता है और इसके द्वारा प्रसारित तरंगों की आवृत्ति 11 से 15 गीगाहर्ट्ज के बीच होती है। इस कारण इन तरंगों की भेदन क्षमता अधिक होती है और टेलीविजन सेट पर 35 से 40 सेमी. व्यास वाले छोटे से एंटीना की मदद से संकेतों को प्राप्त किया जाता है।

         इसकी दूसरी विशेषता यह है कि इस तकनीक में प्रसारण के लिये डिजिटल संकेतों का प्रयोग किया जाता है। इस कारण संचार की प्रक्रिया में मौसम से संबंधित व्यवधान कोई समस्या पैदा नहीं करते। इसके दृश्यों में स्पष्टता होती है तथा ध्वनि स्टीरियोफोनिक होती है।

          इसकी तीसरी विशेषता यह है कि Ku बैण्ड के माध्यम से 10-12 चैनलों का प्रसारण एक साथ हो सकता है। अतः कुछ Ku बैण्डों का प्रयोग करने से 100 से अधिक चैनलों का प्रसारण सरलतापूर्वक होने लगता है।


डी.टी.टी. (D.T.T:- Digital Terrestrial Television) :-

               डिजिटल टेरेस्ट्रियल टेलीविजन, डिजिटल तकनीक पर आधारित होता है, जो टेलीविजन चित्र को द्वि-अंकीय संख्याओं की एक शृंखला के रूप में कूटबद्ध करता है और उसके बाद इसके सम्पीडन के लिये कम्प्यूटर प्रोसेसिंग का प्रयोग करता है। डिजिटल टेरेस्ट्रियल टेलीविजन रेडियो स्पेक्ट्रम के यूएचएफ (U.H.F.- Ultra High Frequency) भाग में प्रसारित होता है। डीटीटी द्वारा पिक्चर, रिजॉल्यूशन, अन्तक्रियात्मक वीडियो और डाटा सर्विस उपलब्ध कराई जाती है जो कि एनालॉग तकनीक में संभव नहीं है। एनालॉग प्रसारण की तुलना में बेहतर रिसेप्शन गुणवत्ता, बहुल प्रसारण सुविधा, तकनीकों का अभिसरण, चैनल की अत्यधिक क्षमता तथा कार्यक्रम दिशा-निर्देशन जैसी विशेषताएँ इस तकनीक में उपलब्ध हो पाती हैं।


एचडी टीवी (H.D. T.V. - High Definition Television) :-

             एचडी टीवी एक प्रकार का डिजिटल टावर है। इसमें पाँच गुना अधिक सूचना ग्रहण करने की क्षमता है। वर्तमान एनालॉग टेलीविजन चित्र 480 क्षैतिज रेखाओं तक रिजॉल्यूशन उपलब्ध कराता है, जबकि एक एचडी टीवी 1080 क्षैतिज रेखाओं तक रिजॉल्यूशन उपलब्ध कराता है। एनालॉग टेलीविजन में टीवी स्क्रीन की ऊँचाई और चौड़ाई का अनुपात 3:4 होता है जबकि एचडी टीवी में यह अनुपात 9:14 होता है। HDTV का सर्वोत्तम उदाहरण प्लाज्मा टीवी तथा LCD टीवी है। HDTV में सिनेमा हॉल व डीवीडी पर प्रयुक्त साउण्ड के समान डॉल्बी डिजिटल साउण्ड होता है।


अन्तक्रियात्मक टेलीविजन (Interactive Television):-

               अन्तक्रियात्मक टेलीविजन से अभिप्राय पर्सनल वीडियो रिकॉर्डर’ द्वारा टेलीविजन का उपयोग पर्सनल कम्प्यूटर के रूप में करने से है। पर्सनल वीडियो रिकॉर्डर सेट टॉप बॉक्स के रूप में कार्य करते हुए कम्प्यूटर चिप की मदद से साधारण टेलीविजन को इण्टरएक्टिव टेलीविजन में परिवर्तित कर देता है। इस टेलीविजन में यह सुविधा उपलब्ध होती है कि कोई व्यक्ति अपने पसंदीदा कार्यक्रमों को देखने के साथ-साथ उसे रिकॉर्ड (Record), रिप्ले (Replay) व पॉज (Pause) कर सकता है।


 ★ प्लाज्मा टेलीविजन (Plasma Television) :-

            प्लाज्मा टेलीविजन एक तरह का हाई डेफिनेशन टेलीविजन होता है जिसमें पिक्सल का निर्माण अक्रिय गैसों जैसे- निऑन और जीनॉन, के छोटे-छोटे कंटेनर से मिलकर होता है। प्रत्येक पिक्सल को दो विद्युतीय चार्ज प्लेट (Electrically Charged Plate) के मध्य में रखा जाता है एवं विद्युत का प्रवाह होने पर यह चमकने लगता है। टेलीविजन में लगा उपकरण विद्युतीय क्षेत्र को – नियंत्रित करता है जिससे विभिन्न रंगों का मिश्रण बनता है तथा टेलीविजन पर दिखता है। इस टेलीविजन का स्क्रीन फ्लैट होता है जिस पर इमेज (Image) और रंग अन्य टेलीविजन की तुलना में बेहतर दिखता है।


एलसीडी (Liquid Crystal Display Television) :-

          एलसीडी टेलीविजन प्रकाश को उत्सर्जित करने के स्थान पर उन्हें ब्लॉक करने के सिद्धांत पर कार्य करता है। यही कारण है कि इसमें ऊर्जा की खपत प्लाज्मा टीवी की तुलना में कम होती है। इस टेलीविजन में दो ग्लास प्लेटों के मध्य क्रिस्टल पदार्थ मौजूद होते हैं, जब इसमें विद्युतधारा प्रवाहित की जाती है तो यह क्रिस्टल क्रमिक रूप से व्यवस्थित हो जाते हैं जिससे धारा उन्हें पार नहीं कर पाती। इस तरह, प्रकाश को ब्लॉक करने के सिद्धांत पर आधारित इस टेलीविजन द्वारा चित्र व सूचना प्राप्त किये जाते हैं।


 ★ एल.ई.डी. टेलीविजन (Light Emitting Diode Television) :-

          एल.ई.डी. टीवी एक प्रकार का एलसीडी टीवी है जिसमें पृष्ठ प्रकाश (Backlight) के लिये LED का प्रयोग किया जाता है। जबकि अन्य टेलीविजन में सीसीएफएल (CCFL-Cold Cathode Florescent Lamp) का प्रयोग किया जाता है। इस टेलीविजन में विद्युत की कम खपत होती है। ऊर्जा का प्रत्येक क्षेत्र में बेहतर वितरण होता है, अतिगुणवत्ता युक्त चित्र प्रदर्शित होता है तथा इसकी टीवी स्क्रीन अत्यंत पतली की जा सकती है।

           संक्षेप में यह कहा जा सकता है LCD टीवी में जब पृष्ठ प्रकाश (Back Lighting) LED द्वारा हो तो उसे LED TV कहते हैं। इस टेलीविजन में गैलियम या आर्सेनिक जैसे अर्द्धचालकों का प्रयोग किया जाता है।


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