गांधी जी के विचारों के निर्माण में जॉन रस्किन की पुस्तिका "अन टू दिस लास्ट" का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, विशेषकर इस पुस्तिका में वर्णित शारीरिक परिश्रम के आदर्श का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। रस्किन मुख्यत: धार्मिक तथा नैतिक विचारक थे क्योंकि उनका जन्म तथा पालन-पोषण प्रोटेस्टेट मत में विश्वास करने वाले धर्म-परायण ईसाई परिवार में हुआ था। उनकी माता उन्हें पादरी बनाना चाहती थी, जिसके कारण उन्हें बाल्यकाल से बाइबिल की शिक्षा दी गई | बाइबिल की शिक्षा का उनके भावी जीवन तथा साहित्य कला एवं नैतिकता संबंधी विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
रस्किन ने कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है, किंतु वे सौंदर्य और कला को सत्य एवं नैतिकता से पृथक नहीं मानते थे। उनके विचार में कला जीवन के आंतरिक सौंदर्य और सत्य की अभिव्यक्ति का साधन है। वे धार्मिक तथा नैतिक विचारक होने के कारण अपने युग के महान समाज सुधारक थे। वे आध्यात्मिक एवं नैतिक उन्नति को अधिक महत्व देते थे और मनुष्य की बढ़ती हुई धन लालसा तथा भौतिक सुखों की अत्यधिक लिप्सा को निंदनीय मानते थे। वे समाज में प्रचलित ऊंच-नीच की भावना का विरोध करते थे और मानसिक श्रम की भांति शारीरिक श्रम को भी विशेष महत्व देते थे।
गांधी जी के ऊपर रस्किन के इन विचारों का गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तो " इंडियन ओपिनियन " नामक अपने पत्रिका के काम से 1904 में जोहान्सबर्ग से डरबन जा रहे थे, गाड़ी पर छोड़ने आये उनके परम मित्र पोलार्ड ने उन्हें रस्किन रचित पुस्तक अन टू दिस लास्ट पढ़ने दी ताकि उनका 24 घंटे का रेल सफर आसानी से कट जाए। रास्ते में गांधीजी ने उस किताब को पढ़ा और इस पुस्तक में प्रगट किए गए रस्किन के विचारों का गांधी जी पर तत्काल ऐसा प्रभाव पड़ा कि गांधीजी ने इन विचारों के अनुसार दूसरे दिन से ही अपने जीवन में परिवर्तन करना आरंभ कर दिया। इसके प्रभाव को गांधीजी स्वीकारते हुए अपनी आत्मकथा में पृष्ठ 368 में लिखते हैं कि इस पुस्तक को वैसी ही पुस्तक कही जाएगी जिसने मेरे जीवन में तत्काल महत्व का रचनात्मक परिवर्तन करा दिया हो। मेरा विश्वास है कि जो चीज मुझ में गहराई से भरी हुई थी उनका स्पष्ट प्रतिबिंब मैंने रस्किन के इसी ग्रंथ रत्न में देखा और इस कारण उसने मेरे हृदय पर साम्राज्य जमा लिया और उसमें प्रगट किए हुए विचारों पर मुझसे अमल कराया। उपर्युक्त उद्धरण से गांधीजी पर इस पुस्तक का गहरा प्रभाव पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है।
गांधी जी ने रस्किन की इस किताब को सन 1904 में पढ़ी थी। सार्वजनिक रूप से 4 वर्षों तक उन्होंने इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की। सन 1908 में गांधी जी ने रस्किन की पुस्तक "अन टू दिस लास्ट" का गुजराती में भावानुवाद किया जो " इंडियन ओपिनियन " में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। गांधी जी ने उस अनुदित पुस्तक का नाम " सर्वोदय " रख दिया। इस नाम की स्पष्टता के बारे में गांधीजी अपनी राय भी व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि " पुस्तक लिखने का उद्देश्य - सबका भला- सबका उदय" हैं, इसलिए हमने इसे सर्वोदय नाम दिया है।
◆ गांधी जी ने सर्वोदय के तीन मूलभूत सिद्धांत बतलाए :-
1.सबकी भलाई में ही अपनी भलाई है अर्थात समष्टि के हित में ही व्यष्टि का हित निहित है ।
2.वकील और नाई दोनों के काम की कीमत समान होनी चाहिए क्योंकि आजीविका का हक सबको समान है। 3.मजदूरों, किसानों और शिल्पकारों का सादा जीवन ही सच्चा जीवन है।
―गांधीजी मानते हैं कि पहले सिद्धांत में ही दूसरा दोनों सिद्धांत समाया हुआ है।
रस्किन की "अन टू दिस लास्ट" के अलावे गांधी जी ने रस्किन के नैतिक विचारों से संबंधित उनकी पुस्तक " क्राउन ऑफ द वाइल्ड "( जंगली जंतुओं का ताज ) भी पढ़ी है। इन पुस्तकों के अध्ययन के कारण गांधीजी रस्किन के सामाजिक तथा नैतिक विचारों से बहुत प्रभावित हुए थे और इन विचारों को अपने जीवन में विशेष महत्व देते थे। संभवत इसी कारण रस्किन और गांधी जी के विचारों में पर्याप्त समानताएं पाई जाती है। ये दोनों भौतिक प्रगति की अपेक्षा नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति को अधिक महत्व देते हैं। दोनों सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की अपेक्षा मानव की आत्मिक बुद्धि तथा चारित्रिक उत्थान को अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक मानते हैं। दोनों ही कृत्रिम एवं यांत्रिक सभ्यता को अनुचित तथा अवांछनीय मानते हैं और मानव के शारीरिक श्रम को बौद्धिक श्रम से अधिक महत्व देते हैं। दोनों का विचार मालिकों और मजदूरों के संबंध में स्पष्ट है कि वे मालिक और मजदूरों के बीच घृणा के स्थान पर पिता-पुत्र का प्रेम पूर्वक संबंध की वकालत करते हैं।
इस प्रकार यह कहना उचित ही होगा कि गांधीजी रस्किन के विचारों एवं सिद्धांतों से सहमत थे और उनके विचारों एवं सिद्धांतों का गांधी जी पर गहरा प्रभाव पड़ा था ।।
