गांधी जी पर बाईबिल का प्रभाव

  


गांधी जी पर ईसाई धर्म (बाईबिल) का प्रभाव


हिन्दू धर्म शास्त्र गीता के बाद विश्व में गांधीजी को प्रभावित करने वाली दूसरी सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ ईसाई धर्मग्रंथ " बाईबिल " था। बाईबिल की  शिक्षाओं का गांधी जी पर गहरा प्रभाव पड़ा हैं। वह गीता और बाईबिल के पर्वत की शिक्षा में कोई भेद नहीं देखते थे। उनके अनुसार पर्वत की धर्म शिक्षा जिसका चित्रमय  वर्णन करती है, गीता उसी को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं।


    पर्वत की धर्म शिक्षा से वे इतने अधिक प्रभावित हुए थे कि वह वस्तुतः इसे गीता का स्थानापन्न मान बैठे थे। उन्होंने कहा था- मान लीजिए आज यदि मैं गीता से वंचित हो जाऊं और उसके संपूर्ण विषय को भूल जाऊं, परंतु मेरे पास पर्वत की धर्म शिक्षा की एक प्रति हो तो मुझे उससे वही आनंद मिलेगा जो मुझे गीता से मिलता है। गांधीजी के अनुसार ईसाई धर्म की विशेषताएं सक्रिय प्रेम की उसकी शिक्षा है। कोई भी दूसरा धर्म इतनी दृढ़ता के साथ नहीं कहता कि ईश्वर प्रेम है, जितनी दृढ़ता के साथ यह बात बाइबिल में कही गई है। बाईबिल के New Testament  में इस आशय के शब्द भरे पड़े हैं। गांधी जी के शब्दो में- " Christianity's particular contribution is that of active love, No other religion says so formly that God is love and the new testament is full of the word."


    ईसा की संपूर्ण शिक्षा ईश्वर के सार्वभौम प्रेम का संदेश ईसा की समस्याओं का सार है। ईशा ओल्ड टेस्टामेंट के इंदु आदेशों मुझे अपने ईश्वर से प्रेम करना होगा और तुझे अपने पड़ोसी से अपने सामान प्रेम करना होगा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि दोनों आदेश एक दूसरे के समान है और सभी धर्म विधियों एवं धर्म प्रवर्तक क्योंकि वे आधार इन आदेशों को ईशा की बहुमूल्य दें तब सामने आती है जब वे कहते हैं "तुमने सुना है कि यह कहा गया है कि तुझे अपने पड़ोसी से प्रेम करना होगा और अपने शत्रु से घृणा करना" लेकिन मैं तुमसे कहता हूं अपने शत्रुओं से प्रेम करो, जो तुम्हें साथ दे उनको तुम आशीर्वाद दो, जो तुमसे घृणा करें उनके साथ भलाई करो और तुम पर अत्याचार करें एवं दुर्भावनापूर्ण दुरुपयोग करें उनके लिए प्रार्थना करो, जिससे तुम स्वर्ग में अपने पिता के शिशु बन सको क्योंकि वह अपने शिशु के अच्छे और बुरे के लिए उम्मीद करता है और न्याय एवं अन्याय दोनों पर ही वर्षा करवाता है।


       उसके प्रेम में किसी प्रकार के बल प्रयोग के लिए कोई स्थान नहीं है ।ऐसा कहा जाता है कि जब ईसा के प्रति दुर्वचनों का प्रयोग हुआ तो उन्होंने उलट कर दुर्वचन नहीं कहें और जब उन्हें कष्ट सहन करना पड़ा तो उन्होंने किसी को धमकाया नहीं। बाईबिल के वचन इस प्रकार हैं - " When he was reviled, reviled not again, when he suffered, threatened not."


        बल प्रयोग के परित्याग करने का उनका निर्णय उस समय और उजागर होता है जिस समय उसकी गिरफ्तारी होती है। उनकी गिरफ्तारी के समय उनकी रक्षा के लिए  उनका  शिष्य पीटर जब अपनी तलवार निकालकर प्रधान पुजारी के नौकर का दाहिना कान काट देता है तो वह उसकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि- अपनी  तलवार म्यान में रख दो क्योंकि जो तलवार उठाते हैं विनष्ट होते हैं। पर्वत की धर्म शिक्षा के निम्नांकित वचनों में निहित प्रेम के संदेश क्या कभी अनसुनी-अनदेखी की जा सकती है?


◆  तुमने सुना है, यह कहा गया है कि आंख का बदला आंख और दांत का बदला दांत। 


         लेकिन मैं तुमसे कहता हूं तुम बुराई का प्रतिरोध ना करो बल्कि जो कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे उसकी ओर बाएं गाल भी कर दो और अगर कोई तुम्हारे ऊपर मुकदमा चलाकर तुम्हारा कोट ले तो तुम उसे अपना लबादा भी लेने दो और जो कोई तुमको एक मील चलने पर मजबूर करे, उसके साथ दो मिल चलो।  


         ईसा का प्रेम और उनका अहिंसात्मक प्रतिरोध उस समय पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है, जब सूली पर चढ़ने वक्त अपने शत्रुओं के लिए परमेश्वर से वह प्रार्थना करते हैं -"हे पिता इन्हें माफ कर दें, क्योंकि ये नहीं जानते कि यह क्या कर रहे हैं "। उत्कृष्ट प्रेम की इस शिक्षा ने गांधीजी के अंतर्मन को झकझोर दिया था। शूली पर लटके हुए ईसा मसीह की तस्वीर उनके मन को छू लेती थी। ऐसा कहा जाता है कि रोम की  सेंटपीटर्स में जब उन्होंने ईसा मसीह की प्रस्तर मूर्ति देखी थी, तो वह रो पड़े थे। ईसा मसीह के प्रति गांधीजी में अगाध श्रद्धा थी, इसलिए उन्होंने अपने चिंतन और जीवन में ईसा मसीह के अनेक वचनों को आत्मसात कर लिया था। गांधीजी के लिए क्रॉस की व्याख्या की जाए तो स्पष्ट व्याख्या हो जाएगा कि वह ईसाई का सच्चा प्रतीक हैं। यह केवल घृणा से अलग रहना ही नहीं वरन प्रेम एवं शुभेक्षा द्वारा घृणा पर विजय प्राप्त  करना सिखाता है। शूली पर लटके प्रभु यीशु ने वैसे लोगों के प्रति प्रेम और सुरक्षा का भाव रखकर निहत्थे अशुभ पर विजय प्राप्त करने के लिए ठानी। यही क्रॉस का सच्चा संदेश है और यही संदेश गांधी जी के सत्याग्रह सिद्धांत की आत्मा सत्याग्रह ही तो है। मूलतः यह शुभ द्वारा अशुभ पर, प्रेम द्वारा घृणा पर विजय प्राप्त करने का माध्यम है। 


निश्चित रूप से गांधीजी का सत्याग्रह सिद्धांत बाईबिल में वर्णित ईसा मसीह के उपर्युक्त उपदेशों से काफी प्रभावित था। ईसा मसीह को गांधी जी ने सत्याग्रहियों का ताज कहा था। गांधी जी का सर्वोदय सिद्धांत ईसा के उपदेशों से काफी प्रभावित था, क्योंकि ईसा का प्रेम तो किसी खास व्यक्ति या व्यक्ति समूह के लिए नहीं था वरन व संपूर्ण मानवता के लिए था, दीन और दुःख की पीड़ा कराते हुए दुखियों के लिए था और जहां प्रेम को इतना महत्व दिया गया हो, जहां प्रेम को ईश्वर का पर्याय मान लिया गया हो, वहां हिंसा की कभी कोई गुंजाइश हो ही नहीं सकती। इसाई धर्म तो शत्रुओं तक को भी प्रेम करने की शिक्षा देता है। अतः गांधी का अहिंसा- सिद्धांत ईसा मसीह के सिद्धांत से गहनतम रूप से प्रभावित था। वस्तुतः गांधीजी ने ईसाई धर्म में संपूर्ण मानवता के प्रति खासकर दीन-दुखियों के प्रति अथाह प्रेम को देखा था और अप्रतिरोध का स्पष्ट संदेश देखा था ।


◆ गांधीजी ईसा मसीह के जिन अन्य उपदेशों से प्रभावित थे ,वे इस प्रकार हैं :-


1. वे धन्य हैं, जिसमें दीन भाव का उदय हो गया है, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है यानी स्वर्ग का  राज्य उन्हीं को मिलेगा। 


2. वे धन्य हैं, जो विनम्र हैं, क्योंकि उन्हें ही धरती का वैभव प्राप्त होगा ।


3. वे धन्य हैं  जो पश्चाताप करते हैं, क्योंकि उन्हीं को संताप से मुक्ति मिलेगी।


4. वे धन्य हैं, जिनमें न्याय के लिए भूख और प्यास है, क्योंकि उन्हीं की भूख और प्यास तृप्त  होगी।


5. वे धन्य हैं, जो कृपालु हैं क्योंकि उन्हें ही ईश्वर की करुणा प्राप्त होगी ।


6. वे धन्य हैं, जिसका हृदय स्वच्छ और निर्मल है, क्योंकि उन्हीं को ईश्वर का या परमेश्वर का साक्षात्कार होगा।


7. वे धन्य हैं, जो शांति की स्थापना करते हैं, क्योंकि वे ही परमेश्वर के शिशु कहलाएंगे ।


8. वे धन्य हैं, जो न्याय के लिए दुख भोगते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज उन्हीं को मिलेगा।


              इन उपदेशों में जिन सद्गुणों का गुण-गान किया गया है, वे सब गांधीजी में साकार हो गये। अतः गांधी जी पर अर्थात ईसाई धर्मग्रंथ बाईबिल का प्रभाव अत्यंत गहरा रहा है। ईसाई धर्म से  इतना प्रभावित रहते हुए गांधी जी ने वर्तमान में उस धर्म में आ गई बुराइयों की आलोचना भी की थी। 


वस्तुतः इस धर्म की बुराईयां गांधीजी के अनुसार इस धर्म के अनुयायियों द्वारा लाई गई बुराइयां थी। गांधी जी मानते थे कि इस धर्म के अनुयायियों ने धर्म के अनेक मूलभूत सिद्धांतों को नकार दिया था। वे हिंसा घृणा एवं ऐसी ही बहुत सी बुराइयों में लिप्त हो गए थे। अनेक ईसाईयों में अपने धर्म को दुनिया के श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति देखी जाती थी पर गांधी जी की दृष्टि में ऐसा मानना गलत था। गांधीजी का मानना था कि ईसाई धर्म निश्चित रूप से एक उत्कृष्ट धर्म है पर संसार के अन्य धर्म भी उतने ही उत्कृष्ट हैं। ईसाई धर्म लोगों को मुक्ति दिलाने की क्षमता रखता है तो अन्य धर्मों में भी यह क्षमता उतनी ही है। इसलिए गांधीजी ने ईसाई से अपेक्षा की कि वे अन्य धर्मों के प्रति सहानुभूति का रूप अपनाएँ, वे उनके प्रति सहिष्णु बनें। बाईबिल में तो धार्मिक सहिष्णुता के बीज अस्पष्टत: विद्यमान है। गांधी जी को इस बात की प्रसन्नता थी कि बहुत हाल-फिलहाल में अनेक समझदार ईसाई में धार्मिक सहिष्णुता की भावना आ गई है और वे अन्य धर्मों को भी महत्व देने लगे हैं। जो भी हो गांधी जी ने बाइबिल में ईसा के उपदेशों का हृदयंगम किया था और उनको अपने जीवन और चिंतन में आत्मसात कर लिया था।

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