सत्याग्रह मौलिक रूप से गांधी जी से संबंधित नहीं था, उनसे पहले भी उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता, कुरान जैसे अनेक धार्मिक ग्रन्थों तथा अन्य अनेक पुस्तकों में सत्याग्रह के विचार का व्यापक उल्लेख मिलता है। इसे व्यवहार में उतारने का काम सर्वप्रथम भक्त प्रल्हाद, राजा हरिश्चंद्र, सुकरात, प्लेटो, जीसस क्राइस्ट, सम्राट अशोक जैसे अनेक भारतीय और पाश्चात्य वासियों ने किया है। भक्त प्रल्हाद शायद ऐसा पहला व्यक्ति सत्याग्रही था, जिसने अपने क्रूर पिता (हिरणकश्यप) के अत्याचारों के खिलाफ सत्याग्रह का अभिनव प्रयोग किया अपितु इसे सत्याग्रह के मूल अर्थ में नहीं समझा गया।
गांधीजी के अनुसार- "सत्याग्रह रूपी सिद्धांत का जन्म इस के नामकरण के पहले ही अस्तित्व में आ गया था। वास्तव में जब इसका जन्म हुआ था, तो मैं खुद भी नहीं जानता था कि यह क्या है"। कुछ पाश्चात्य वासियों का विचार है कि गांधी ने सत्याग्रह के विचारों को क्राइस्ट के न्यू टेस्टामेंट विशेषकर पर्वत पर के उपदेश से लिया है। कुछ अन्य लोगों का मानना है कि इस विचार को उन्होंने टॉलस्टॉय की रचनाओं से लिया था। वास्तव में गांधी के सत्याग्रह के विचार ना तो क्राइस्ट और ना ही टॉलस्टॉय से प्रेरित है, बल्कि उनकी प्रेरणा का मुख्य आधार उनके अपने वैष्णवी मत थे, जिन पर उन्हें अटूट विश्वास था।
सत्याग्रह शब्द मूल रूप से एक संस्कृत शब्द है। यह दो शब्दों के मेल- सत्य और आग्रह के मिश्रण से बना है। दूसरे शब्दों में सत्य पर टिके रहना तथा सत्य की उपलब्धि हेतु दृढ़ता पूर्वक लगे रहना या जमे रहना ही सत्याग्रह है। सत्याग्रह को परिभाषित करते हुए गांधी जी ने लिखा है कि- "सत्याग्रह, सत्य के लिए प्रेमपूर्वक आग्रह की मांग करता है और इस प्रकार यह आग्रह ताकत के एक पर्यायवाची के रूप में बदल जाते हैं। यही कारण है कि मैंने भारतीय आंदोलन को निष्क्रिय प्रतिरोध के बजाय सत्याग्रह कहना शुरू किया, जिसका आशय ऐसी ताकत से है जिसकी बुनियाद सत्य, प्रेम, अहिंसा के मजबूत खंभों पर टिकी है।"
गांधी ने इंडियन ओपिनियन पत्रिका में सत्याग्रह को एक पवित्र उद्देश्य हेत्तु दृढ़ता के रूप में रेखांकित किया है। यंग इंडिया पत्रिका में भी वे इस बात की ओर संकेत करते हैं कि सत्याग्रह दुख भोग के सिद्धांत का एक नवीन रूप भर है। हिंद स्वराज में इस बात की उद्धघोषणा करते हैं कि "दूसरों के बलिदान की तुलना में आत्म बलिदान अनंत गुना अधिक श्रेयस्कर है तथा एक आत्म-बलिदानी यानि स्व दुःख भोगी अपनी गलतियों से दूसरों को कभी कष्ट नहीं पहुंचाता है। सत्याग्रह, जो गांधीजी के सर्वोच्च आविष्कार, खोज या कृति थी, सत्य के ऐसे अनुव्रत व अविराम खोज की बात करता है जहां हिंसा, घृणा, ईर्ष्या और द्वेष का कोई स्थान नहीं।
गांधी जी द्वारा प्रतिपादित सत्याग्रह की अवधारणा का मतलब निष्क्रिय दुर्बलता, नि:सहायता या स्वार्थ परायणता नहीं हैं। वास्तव में यह मानवीय मस्तिष्क की एक ऐसी सोच तथा जीवन-दर्शन को इंगित करता है, जिसकी बुनियाद पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति हेत्तु दृढ़-इच्छाशक्ति से प्रेम के विजय के सिद्धांत पर असीम श्रद्धा द्वारा ह्रदय परिवर्तन हेत्तु स्वैच्छिक आत्म दुख भोग तथा सत्य की प्राप्ति हेत्तु अहिंसक तथा न्याय पूर्ण तरीकों का धीरता तथा सक्रियता से इस्तेमाल पर टिकी थी। जे बी कृपलानी के शब्दों में- " सत्याग्रह, प्रहार या हड़ताल के अलावा भी कुछ और अधिक की मांग करता है, यह कुछ अधिक संघर्षरत लोगों के सतत नजदीक उत्थान की बात करता है। इसका अर्थ विरोधियों को नैतिक रूप से परास्त करना भी है। एक सत्याग्रही हड़ताली की अपेक्षा कहीं अधिक बेहतर असहयोगी होता है। वास्तविक रूप में सत्याग्रह, सत्य के लिए अनवरत कार्याभीमुख खोज तथा असत्य के खिलाफ अहिंसक संघर्ष है। "
सत्याग्रह का अर्थ राजनीतिक तथा आर्थिक आधिपत्य के खिलाफ मानवीय आत्मा की शक्ति की दृढ़ता भी है क्योंकि आधिपत्य हमेशा अपने झूठ और स्वार्थ के लिए सत्य को खारिज करता है, जो सत्याग्रह मानवीय चेतना की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है। चेतना यानी विवेक मानव के सत्य की प्राप्ति हेतु अहिंसक संघर्ष की ओर जोरदार ढंग से अभिप्रेरित करती है। सत्याग्रह, श्रद्धा, विश्वास, विवेक, प्रेम और विनम्रता की महानतम अभिव्यक्ति है। यह अपने आप में एक महान विजय है। सत्याग्रह सत्य के अनुसंधान तथा उस तक पहुंचने का अनवरत प्रयास है। यह अपना कार्य शांति, स्थिरता लेकिन तीक्षणता पूर्वक करता है। वास्तव में संसार में इसके समान लचीला, सौम्य व स्पष्ट कोई भी ताकत नहीं है। यह अन्याय,अनीति, दमन और शोषण के खिलाफ आत्मबल को खड़ा करता है।
सत्याग्रह का सिद्धांत कोई नवीन खोज नहीं है, यह उतना ही पुराना है जितना महर्षि पतंजलि। गांधी जी ने इसकी उत्पत्ति को शुद्धता के विचार से जोड़ने का जोरदार प्रयास किया। सत्याग्रह को कामधेनु बताते हुए गांधी ने इसे सत्याग्रही और उसके विरोधी तत्वों दोनों के लिए उपयोगी बताया। सत्याग्रह का संबंध वैदिक आर्यों के यज्ञों से भी रहा है। मानव और पशु बलि के मौलिक रूप तथा सत्याग्रह में इसके समकालीन अभिव्यक्ति के बीच उपनिषदों के बौद्धिक शुद्धिकरण तथा जैनों और बौद्धों के मानवतावादी सरोकारों के तीक्ष्ण बदलाव के दौर से यह गुजरा है।
गांधी ने इस अनुपम हथियार की खोज दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अपने अहिंसक संघर्ष के दौरान सन 1906 ई० में की। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को संगठित किया तथा अन्याय पूर्ण सार्वजनिक व्यवहारों के खिलाफ प्रतिरोध की एक नवीन तरीके को इजाद किया, जिसे गांधीजी ने निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया लेकिन समय बीतने तथा संघर्ष के तीक्ष्ण होने के साथ ही यह नाम संदेश प्रदान करने में संदेह और भ्रम के घेरे में आ गया, इसे कमजोरों के हथियार के रूप में माना जाने लगा तथा एक ऐसे अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल भी शर्मनाक माना जाने लगा जो कि आसानी से बोधगम्य नहीं हो।
गांधीजी ने यह महसूस किया कि जिस आंदोलन को उन्होंने शुरू किया था वह निष्क्रिय प्रतिरोध से भिन्न कुछ अधिक गहरे अर्थों वाला था। इसलिए इस नवीन किस्म के प्रतिरोध के पुनर्निर्माण की महती आवश्यकता को महसूस करते हुए गांधीजी ने अपने साप्ताहिक पत्रिका इंडियन ओपिनियन में एक नवीन और उपर्युक्त शब्द सुझाने हेत्तु एक छोटी सी पुरस्कार की घोषणा भी की। गांधीजी के एक सहयोगी मगनलाल गांधी ने इसे तब एक शब्द - " सदाग्रह " सुझाया, जिसका अर्थ होता है पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति हेत्तु अनवरत प्रयास करना। गांधीजी ने इसे पसंद तो किया लेकिन साथ में यह महसूस किया यह उनके विचारों को संपूर्ण रूप से अभिव्यक्ति नहीं करता है क्योंकि उनकी नजरों में यह एक ऐसा सत्य बल था जिसकी अभिव्यक्ति सत्य, प्रेम, अहिंसा जैसे दिव्य गुणों से परिचालित होता था। उन्होंने इसमें थोड़ा सा संशोधन किया और इसे सत्याग्रह का नाम दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ सत्य के लिए आग्रह करना था।
सत्याग्रह की उत्पत्ति पर जोसफ सेठ (जे डॉक) के साथ विचार विमर्श करते हुए गांधीजी अपने निम्न विचार व्यक्त करते हैं- उन्होंने कहा मैं याद करता हूं कि कैसे अपने स्कूल में सीखे एक गुजराती कविता की एक पंक्ति ने मुझे बेहद आकर्षित किया था। उसका भावार्थ कुछ यह था- " यदि कोई व्यक्ति हाथ के बदले हाथ की पिपासा शांत करता हैं तो इसमें उल्लेखनीय कुछ भी नहीं। असली बात तो तब है जब आप किसी की बुराई के बदले भलाई का दान करते हैं "। बचपन की उस अवस्था में उस पंक्ति ने मुझ पर जबरदस्त प्रभाव डाला और मैंने उसे अपने व्यवहार में परिणत करने का भरसक प्रयत्न किया।
गांधीजी आगे बताते हैं कि उसके बाद व्यापक रूप में हिंदु धर्मग्रंथ भगवद गीता का मुझपर पहला प्रभाव पड़ा। संस्कृत में लिखी भगवत गीता से मैं पूरी तरह वाकिफ हूँ लेकिन इसकी शिक्षाओं को इस विशेष कार्य हेत्तु मैंने कभी संदर्भ नहीं बनाया। वास्तव में न्यू टेस्टामेंट ने मुझे निष्क्रिय प्रतिरोध की उपयोगिता तथा मूल्य को सही रूप में समझाया। जब मैंने पर्वत पर के उपदेश की इस पंक्तियों को पढ़ा कि बुरे आदमी का नहीं वरन बुराई का प्रतिरोध करो। यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारता है, तो झट से अपना बायां गाल भी आगे कर दो तथा अपने दुश्मनों को भी अपने परिजनों के समान ही प्रेम करो तथा उसकी भलाई के लिए प्रार्थना करो क्योंकि यह स्वर्ग में रहने वाले तुम्हारे पिता के पुत्रों में से कोई एक हो सकता है, तो मैं आनंद और हर्ष से अभिभूत हो गया तथा मुझे लगा कि इसने मेरे अपने विचारों को वहां पक्का कर दिया जहां उसकी मुझे सबसे कम आशा थी। भगवत गीता ने इस सोच को गहराई प्रदान की तथा टालस्टाय के स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है ने इसे अस्तित्व प्रदान किया।।
