गांधी की हिंदीनिष्ठता एवं संपादन कला

 


गांधी की हिंदीनिष्ठता एवं संपादन कला 


आज मुख्य धारा की मीडिया का पूरी तरह से बाजारीकरण हो गया है और इसमें मानवीय मूल्यों, नैतिक संस्कारों और सामाजिक सरोकारों के लिए कोई जगह नहीं बची है। इसी का परिणाम है कि आज मीडिया में पेड न्यूज, सनसनीबाजी और सत्ता की दलाली जैसे दुर्गुण भी आ गए हैं। इन वजहों से मीडिया की  जनपक्षधरता कम हो गई है और उस पर से लोगों का विश्वास भी उठने लगा है।



ऐसे में मीडिया में गांधीय मूल्यों की अत्यधिक आवश्यकता है। सम-सामयिक मीडिया को गांधी के पत्रकारिता से आम- जनता के प्रति समर्पण, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, निर्भयता और राष्ट्रप्रेम की शिक्षा लेनी चाहिए।



हम जानते हैं कि गांधीजी मूलतः गुजराती भाषी थे। लेकिन, उन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए अत्यधिक काम किया है। उन्होंने यह माना कि देश की जनता को स्वराज दिलाने के लिए केवल राजनैतिक आजादी से काम नहीं चलने वाला है, बल्कि हमें सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानसिक गुलामी से भी मुक्त होना होगा। इसमें विदेशी शिक्षा और विदेशी भाषा की गुलामी से मुक्ति भी बहुत जरूरी कदम है।



इस देश में अंग्रेजी की स्थिति के बारे में गांधी जी का स्पष्ट दृष्टिकोण था। " हिंद स्वराज " में यह पूछने पर कि क्या आप स्वराज्य के लिए अंग्रेजी शिक्षा का कोई उपयोग नहीं मानते, गांधी जी ने कहा - " करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। " उन्होंने समझाने की कोशिश की है कि अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राज, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ उठा नहीं रखा है। पर देश में अंग्रेजी के बढ़ते उपयोग के लिए वह अंग्रेजी को नहीं, बल्कि खुद भारतीयों को जिम्मेदार ठहराते है।



 गांधी जी की संपादन-कला आज भी अनुकरणीय है। यद्यपि वे लेखकों को द्रव्य-दक्षिणा नहीं देते थे तथापि उनसे मानव के अनुरूप अच्छी आर्टिकल भी चाहते थे। स्पष्ट शब्दों में लेखकों को दिशा-निर्देश देने में वे हिचकते नहीं थे। यदि कोई आलेख स्तरीय नहीं होता, तो वे उसे " रिजेक्ट " कर देते थे। एक बार उन्होंने एक लेखक को लिखा-


 " Your article on Mr.Jamnadas was ill conceived and hurriedly written. It could not be printed in young India, nor is it worth printing in any other paper."



जो लेख या पुस्तकें गाँधीजी ने लिखीं उनमें कहीं भी संपादक द्वारा लाल निशान नहीं लगता था, न ही कोई तथ्य बदला जाता था। " सर पेथिक लॉरेंस " ने तो यह भी कह दिया था कि भारत में गाँधी से अच्छा अंग्रेजी लेखक कोई नहीं है। उनकी यह विशेषता थी कि एक शब्द भी अपने कलम या मुख से बेवजह नहीं कहते थे। लिखते ऐसे थे मानो सामने बैठकर बात कर रहे हों। " सर ए.वी. एलेक्जान्डर " ने कहा था कि गाँधीजी के संपादकीय लेखों का एक-एक वाक्य " थॉट फॉर द डे " के लिए मुनासिब था। हर वाक्य को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता था मानो दस-दस बार तौला गया हो।




उर्दू पत्रिका " मखजिन " में मौलाना आजाद ने गाँधीजी के लेखन के बारे में लिखा है― " मेरी तरह ही महात्मा साहब को भी लिखने की कभी न खत्म होने वाली भूख थी। गाँधीजी की बदकिस्मती यह थी कि इस कला को सियासत ने उस दर्जे तक नहीं उठने दिया जैसा कि वे चाहते थे। कितने ही लेख और पुस्तकें इस कारण गाँधीजी के कलम से पूर्ण न हो सके।" 



मौलाना आजाद ने अपने एक अन्य पत्र में लिखा है कि गाँधीजी की अँगरेजी ड्राफ्टिंग ऐसी थी कि स्वयं अंग्रेज पत्रकार और लेखक दांतों तले उंगली दबा लेते थे। गाँधीजी के लिखने की यह हालत थी कि जब वे मध्य भारत के छोटे कस्बों और देहातों में बैलगाड़ियों में यात्रा कर रहे होते थे, तो अपनी गुजराती पत्रिका का संपादन भी किया करते थे और राजनीति के दांव-पेचों से भी निपटा करते थे। उनके पास इस पत्रिका की कई फाइलें होती थीं। रात को जब सब सो जाते थे, तो दो-तीन बजे तक संपादन कार्य चलता था। सारा कार्य वे स्वयं ही करते थे, किसी की सहायता नहीं लेते।



सन्‌ 1904 में गाँधीजी ने " इंडियन ओपीनियन " का संपादन संभाला। इसका उद्देश्य था दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को स्वतंत्र जीवन का महत्व समझाना। इसी के द्वारा उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार भी प्रारंभ किया। 1906 में जोहानसबर्ग की जेल में उन्हें बंद कर दिया गया तो वहीं से उन्होंने अपना संपादन कार्य जारी रखा। एक संपादकीय में गाँधीजी ने लिखा कि सत्याग्रह का नारा उन्होंने अमेरिकी लेखक " एच.डी. थोरो " से लिया, जिसमें थोरो ने अमेरिकी सरकार को बढ़ा हुआ चुंगी कर देने से इंकार कर दिया था और इसके लिए थोरो को जेल भी जाना पड़ा था। " इंडियन ओपीनियन " के लिए गाँधीजी ने कभी चंदा नहीं लिया और न ही विज्ञापन स्वीकार किए। वे स्वयं अपनी वकालत की कमाई से पैसे बचाकर उसका प्रकाशन करते थे।



गाँधीजी को धार्मिक ग्रंथों व पुस्तकों से बड़ा लगाव था। 16 जनवरी 1918 को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने मौलाना आजाद को लिखा कि धर्म के बिना किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व पूर्ण नहीं है। उन्होंने सभी धार्मिक ग्रंथ अनुवाद सहित पढ़ रखे थे। गाँधीजी को उर्दू, अरबी और फारसी भी आती थी, बहुत कम लोगों को इस बात का ज्ञान था। धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित हिन्दी के प्राइमरी स्तर के बच्चों की नैतिक शिक्षा हेतु गाँधीजी ने एक पुस्तक रची- " बाल पोथी "। इसके अतिरिक्त बच्चों के लिए " नीति धर्म " नामक पुस्तक भी गाँधीजी द्वारा लिखी गई, जिसमें उनके द्वारा बच्चों को लिखे गए पत्र शामिल हैं। यह बात भी कम लोग जानते हैं कि गाँधीजी के जीवन से बच्चे इतने प्रभावित थे कि आए दिन उनको चिट्ठियाँ लिखते थे और गाँधीजी प्रत्येक बच्चे को अपने हाथ से जवाबी पत्र लिखते थे।




पत्रिकाओं के संपादन के अतिरिक्त महात्मा गाँधी एक दक्ष अनुवादक भी थे। " जॉन रस्किन " की विख्यात पुस्तक " अन टू द लास्ट " का अनुवाद गाँधीजी ने गुजराती में किया और यह " सर्वोदय " के नाम से प्रचलित हुआ। इसी प्रकार " आश्रम भजनावली " का अनुवाद उन्होंने अंग्रेजी में किया। ऐसे ही जब गाँधीजी जेल में थे तो उन्होंने संस्कृत के कुछ जाने-माने श्लोकों का अनुवाद अंग्रेजी में " सांग फ्रॉम द प्रिजन " के रूप में किया। वे जेल में ही बाइबल का भी गुजराती में अनुवाद करना चाहते थे मगर जेल से जल्दी छूटने के कारण यह कार्य संपन्न नहीं हो सका।



 " यंग इंडिया " का संपादन जब गाँधीजी ने प्रारंभ किया तो यह बड़ा पसंद किया गया। लोगों ने जोर डाला कि इसका एक संस्करण गुजराती में भी प्रकाशित किया जाए। गाँधीजी ने जनता की इच्छा को सम्मान देते हुए गुजराती संस्करण को " नवजीवन " का नाम दिया। यह तो इतना अधिक चला कि बाजार में आते ही हाथों-हाथ बिक जाता और इसके चाहने वाले दुकान-दुकान पर पूछते और ढूंढते फिरते। " हरिजन " द्वारा भी गाँधीजी ने सामाजिक एकता व बराबरी का संदेश दिया। चूंकि इन समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का उद्देश्य स्वतंत्रता संघर्ष भी था, अंग्रेजो ने गाँधीजी को बड़ा कष्ट दिया, उनपर कई अवरोध और प्रतिरोध स्तापित किए मगर गाँधीजी ने भी यह सिद्ध कर दिया कि वे इस मैदान में भी किसी से कम नहीं थे।



गांधी जी का मत था कि संपादक को ख्यातिलब्ध लेखों का भी संशोधन परिमार्जन करने का अधिकार है। सार्वजनिक हित में समाचार प्रकाशन के संबंध में उनका यह दृढ़ मत था कि गोपनीय समाचारों के प्रकाशन से भी यदि जनहित होता हो, तो उनको छिपाया नहीं जाना चाहिए। पत्रकार इस बातों को बताने के लिए विवश नहीं किया जा सकता कि अमुक समाचार उसने कहां से और किससे प्राप्त किया। 


यहां गांधी जी के जीवन की एक घटना का उल्लेख आवश्यक है जब श्री विट्ठल भाई पटेल वायसराय की व्यवस्थापिका परिषद के अध्यक्ष थे, उन्हीं दिनों गांधी को अत्यंत महत्वपूर्ण गुप्त सरकारी बात का पता लगा जो बात सार्वजनिक हित की थी। अतः गांधी जी को यह समाचार किस सूत्र से प्राप्त हुआ। गांधी जी से भी इस संबंध में पूछताछ की गई, पर उन्होंने सरकार को समाचार का सूत्र बताने से साफ-साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि सार्वजनिक हित की बात जैसे भी हो प्राप्त करना पत्रकार का कर्तव्य है। वह समाचार कहां से प्राप्त हुआ। उसका सूत्र बताने के लिए पत्रकार को बाध्य नहीं किया जा सकता।



गांधीजी अप्रतिम और अनुकरणीय पत्रकार थे। संपादकों, पत्र-प्रबंधकों, लेखकों के कर्तव्य, अधिकार से वे पूर्णत: परिचित थे। संपादकों को उन्होंने अत्यंत संयमित रहने का सलाह दिया। उनकी उद्घोषणा थी - " मैं अपने समाचार पत्रों के लेखकों व पत्रकारों से कहता हूं कि जो कुछ कहना है, खुल्लम-खुल्ला कहिए। यह हमारा अधिकार व कर्तव्य है, किंतु हमें यह कार्य शिष्टता व संयम की मर्यादाओं के भीतर रहकर करना है।  



गांधीजी के अनुसार, समाचार पत्र, जनसाधारण को शिक्षित करने के जबरदस्त साधन हैं। लेकिन, आजकल इसका बहुत दुरुपयोग किया जाता है। लोगों को सच्ची खबरें, सच्ची जानकारी और सच्ची सलाह देने के बजाय जानबूझकर झूठी, आधी-अधूरी, अथवा सच्ची जानकारी को गलत दृष्टि-बिंदु से लोगों के सामने पेश कर लोगों को गलत रास्ते पर ले जाने का काम समाचार पत्रों द्वारा  पद्धतिपूर्वक किया जाता है। 



                      ― वर्तमान समय में आज के पत्रकारों, लेखकों, संपादकों को गांधी की पत्रकारिता से सीख लेने की जरूरत हैं। गांधी के बताय मार्ग का अनुसरण कर ही वर्तमान पत्रकारिता सम्बंधी समस्याओं को दूर किया जा सकता हैं।।

       

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