सत्य के प्रयोग की पत्रकारिता

 


गांधी की पत्रकारिता (गांधी के पत्रकारिता का अर्थ और उद्देश्य)


           ―  समय और समाज के संदर्भ में सजग रहकर प्राणियों में दायित्व-बोध कराने की कला ही पत्रकारिता है। गीता की " शुभ दृष्टि " ही वह पत्रकारिता है, जिसमें गुणों को परख कर मंगलकारी तत्वों का प्रकाशन होता है। " असत्य, अशिव एवं असुंदर पर सत्यम, शिवम और सुंदरम " की शंखध्वनि ही पत्रकारिता है। 


" जेम्स मैकडोनाल्ड " ने कहा है― " पत्रकारिता को मैं रणभूमि से भी अधिक बड़ी चीज समझता हूँ। यह कोई पेशा नहीं, बल्कि पेशे से कोई ऊंची चीज है। यह एक जीवन है, जिसे मैंने अपने को स्वेच्छापूर्वक समर्पित किया है। " कार्ल मार्क्स " ने पत्रकारिता को तो सर्वहारा वर्ग ही माना है। उनके अनुसार― " जनता को सोचना चाहिए कि पूंजीवादी विचारधारा के केंद्र से उसे शहरों द्वारा किस तरह छला जा रहा है "।

            


गांधी की पत्रकारिता का अर्थ एवं उद्देश्य उपरोक्त परिभाषाओं की तरह ही काफी विस्तृत है। गांधी ने स्वयं को " शौकिया पत्रकार " कहा था, परंतु वह अपने लिए संपादक शब्द का प्रयोग भी करते थे। पत्रकारिता को एक विषय के रूप में अध्ययन करने में " संपादक " शब्द के स्थान पर " पत्रकार " शब्द अधिक प्रचलित एवं लोकप्रिय है। गांधी ने " शौकिया पत्रकार " के लिए अंग्रेजी में " फ्रीलांस जर्नलिस्ट " शब्द का प्रयोग किया है। 


गांधी " फ्रीलांस जर्नलिस्ट " इस अर्थ में थे कि वे " स्वकर्मी पत्रकार " थे, जो स्वेच्छा से पत्रकार बने हों। परिस्थितियों तथा सहयोगियों ने उन्हें पत्रकार बनने के लिए प्रेरित किया था। गांधी ऐसे पत्रकार थे, जो संपादक थे, लेख लिखते थे, समाचारों का चयन करते थे, अनुवाद करते थे, प्रेस की मशीन भी चलाते थे, ग्राहकों की संख्या और चंदे का हिसाब-किताब भी रखते थे, कर्मचारियों को काम का  बंटवारा करते थे, प्रबंधन देखते थे और पाठकों तथा अपने जीवन एवं राष्ट्र-दर्शन पहुंचाकर उन्हें दासत्व से मुक्त करके स्वराज्य संघर्ष की शिक्षा देकर उनमें राष्ट्रप्रेम उत्पन्न करते थे।




गांधीजी स्वैच्छिक पत्रकार थे, वे अवैतनिक थे और पत्रकारिता से आजीविका कमाना तो वे अपराध ही मानते थे। गांधीजी निजी स्वार्थ लाभ से शून्य थे, परंतु राष्ट्रहित, समाजहित तथा लोकहित से परिपूर्ण पत्रकार थे। पत्रकारिता उनका शौक नहीं था, न ही धन कमाने का साधन था, और न ही कृति लाभ का साधन ही था, वे राष्ट्रहित, समाज हित एवं जनहित के लिए पत्रकार बने थे, जो लगभग 50 वर्षों तक अनेक समाचार-पत्रों में संपादन के साथ-साथ आलेख भी लिखते रहे।



गांधी को पत्रकार के कर्तव्यों, दायित्वों, मर्यादाओं तथा नैतिकताओं का इतनी गहराई से अनुभव हो गया था कि 'इंडियन ओपिनियन' के संपादन, प्रबंधन तथा प्रकाशन के लिए उन्हें आज के समान किसी शिक्षण- प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं हुई। महात्मा गांधी पत्रकार के जादूगर थे। " मस्तराम कपूर " के शब्दों में― " अपनी इस वैविध्यपूर्ण संप्रेषण कला के कारण गांधी ने उस समय, जब रेडियो और अखबार भी बहुत कम लोगों तक पहुंचते थे, ऐसा प्रभाव पैदा किया, जो सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के वर्तमान समय में भी असंभव है। वे एक आवाज लगाते थे और सारा देश उनके साथ चल पड़ता था।"



             गांधीजी पत्रकार की विशेषताओं को परिभाषित करते हैं और उन प्रवृत्तियों को आवश्यक मानते हैं जो किसी भी पत्रकार में होनी चाहिए :-


◆ तथ्यों की सत्यता एवं उनका शुद्ध रूप प्रकाशित करना।  

 

                    ― गांधीजी लिखते हैं -" पत्रकारों का कर्तव्य हो जाता है कि वह पाठकों को सिर्फ शुद्ध तथ्य ही दें।" गांधीजी के अनुसार मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी यह अनुभव किया है कि शुद्ध प्रमाणिकता और सच्चा व्यवहार सर्वोत्तम नीति है। गांधी " हिंदुस्तान टाइम्स " के उद्घाटन में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि― " पत्रकारिता सच्चाई, नीति-कुशलता और निर्भयता के साथ चलेगा तथा असत्य कथन एवं सत्य पर पर्दा डालने का प्रयत्न कभी नहीं करेगा।


निर्भीक पत्रकारिता― गांधी जी स्वयं एक निर्भय पत्रकार थे तथा अपनी पत्रकारिता के कारण दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा और समाचार पत्र का प्रकाशन बंद करना पड़ा।।गांधीजी पत्रकार के लिए निर्भयता आवश्यक मानते हैं। इसलिए वह कहते थे कि लोकसेवक पत्रकारों को निडर होना चाहिए।


◆ गांधीजी जीवन के समान ही पत्रकारिता में भी " नैतिकता और शुद्धता " चाहते थे, वे अन्य पत्रकारों तथा समाचार पत्रों से भिन्न अपनी नैतिकता पर चलते थे, जिनमें गोपनीय पत्र-व्यवहार, भेंट एवं गोपनीय-वार्ता, दस्तावेज का ना होना सम्मलित हैं। गांधी जी झूठी एवं मनगढ़ंत अफवाहें तथा सभी अनैतिकता को पत्रकारिता हेत्तु वर्जित बताते है।  


            

             ― गांधीजी का " मुहम्मद जिन्ना " से हुए एक गोपनीय पत्र-व्यवहार प्रकाशित होने पर, गांधी जी उसे अनैतिक मानते हुए, सितंबर 1944 को मुंबई में कहते हैं― " प्रत्येक धंधे की तरह पत्रकारिता के भी कुछ नैतिक नियम होते हैं। मैं यहां उन अखबारों के बारे में (जिन्होंने गोपनीय पत्र प्रकाशित किया) कोई फैसला नहीं देना चाहता। मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भी मैंने शायद एक भिन्न 'नैतिक' नियम का पालन किया है और पत्रकारिता से जुड़े सभी लोगों को भी इसका पालन करना चाहिए।


गांधी " लुटेरे पत्रकार " शीर्षक से अपने संपादकीय में उन पत्रकारों की भर्त्सना करते हैं, जो निर्दोष व्यक्तियों की झूठी आलोचना करके, उन्हें बदनाम करके तथा उन्हें धमकियां देकर पैसा लूटते हैं। इसी तरह गांधी पत्रकारों के अनैतिक पक्षों पर 'यंग इंडिया' में 6 मार्च, 1930 को लिखते हैं कि― संपादकों एवं पत्रकारों को अपने समाचार-पत्रों के लिए अप्रत्यक्ष स्रोतों से तथा प्रायः उल्टे-सीधे साधनों से समाचार बटोरना नहीं चाहिए तथा उन्हें समय से पहले नहीं छापना चाहिए। वे पत्रकारों की ओर से अफवाहें फैलाने तथा झूठी खबरों के छापने को " अनैतिक तथा अयोग्य आचरण " का अपराधी मानते हैं और चाहते हैं कि ऐसी अफवाहों, असत्य समाचारों की पूरी जांच के बिना प्रकाशित न किए जाएं। गांधीजी ऐसे 'पत्रकारों' को उनके आचरणगत अपराध का बोध कराने तथा उनका बहिष्कार करने तक का प्रस्ताव करते हैं।



          पत्रकारिता के माध्यम से गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों को आत्मानुशासन, स्वच्छता तथा अच्छी नागरिकता के बारे में शिक्षित करना तथा उन्हें सत्याग्रह के लिए तैयार करने का प्रयास किया। उन्होंने पाठकों को " लियो टालस्टाय, अब्राहम लिंकन, थोरो, टी. महादेव राव… इत्यादि अनेक महामानवों के जीवनियों के माध्यम से प्रेरणा दी। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने पर उन्होंने 15 जुलाई, 1914 से पूर्व कहा था कि 'इंडियन ओपिनियन' समाज की सेवा करने के लिए ही प्रकाशित किया जाता है। 'फिनिक्स' संस्था भी इसी कारण चलाई जाती है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि पत्रकार गांधी के इस सेवा-लक्ष्य में उनका संपूर्ण वैचारिक दर्शन और कृतित्व समाया हुआ था।



पत्रकार गांधी के इस सेवा दर्शन, त्याग, बलिदान, करुणा, उत्सर्ग तथा आत्मिक शक्ति ने उनमें एक आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न कर दी। इसी को गांधी आंतरिक बल कहते हैं। गांधी कहते हैं― " आंतरिक बल (आत्मबल) " तो समाचार पत्र के बल से बड़ा होता है। इसलिए उनका विश्वास था कि हिंदुस्तानियों के स्वाभिमान और अधिकारों की लड़ाई समाचार पत्र के बिना भी चलाई जा सकती है। परंतु गांधीजी ने स्वयं ही भारतीयों की इस लड़ाई को समाचार पत्र के उद्देश्य में प्रमुखता से रखकर सिद्ध कर दिया कि जब समाचार पत्र उच्चादर्शों, राष्ट्रीय, नैतिक एवं मानवीय पक्षधरता के लिए प्रतिबद्ध होता है और वह किसी जाति के अस्तित्व, अस्मिता, संस्कृति तथा मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ता है, तो उसमें एक अद्भुत गति तथा आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है। 


गांधीजी ने अपनी " आत्मकथा- सत्य के प्रयोग " में लिखा भी है कि इस अखबार (इंडियन ओपिनियन) ने हिंदुस्तानी समाज की अच्छी सेवा की है। इससे धन कमाने का विचार तो शुरू से ही किसी का नहीं था। जब तक वह मेरे अधीन था, उसमें किए गए परिवर्तन मेरे जीवन में हुए परिवर्तनों के धोतक थे। उसमें मैं प्रति सप्ताह अपनी आत्मा उड़ेलता था और जिसे मैं सत्याग्रह के रूप में पहचानता था, उसे समझने का प्रयास करता था।



गांधी जी के विराट जीवन को देखने से दिखता है कि पत्रकारिता भी मानवता की सेवा का एक आयाम है। जिस तरह मानवता की संपूर्ण सेवा राजनीति के बिना नहीं हो सकती, उसी तरह पत्रकारिता के बगैर भी नहीं हो सकती। गांधी ने बाद में 'इंडियन ओपिनियन' के महत्व को और स्पष्ट करते हुए लिखा― " मेरा यह विश्वास है कि जिस लड़ाई का मुख्य आधार आंतरिक बल (आत्मबल) पर है, वह लड़ाई अखबार के बिना भी लड़ी जा सकती है, परंतु इसके साथ मेरा यह अनुभव भी है कि 'इंडियन ओपिनियन' के होने से हमें अनेक सुविधाएं प्राप्त हुई। अवाम को आसानी से सत्याग्रह की शिक्षा दी जा सकी और दुनिया में जहां कहीं भी हिंदुस्तानी रहते थे, वहां सत्याग्रह संबंधी घटनाओं के समाचार फैलाए जा सके। यह सब अन्य किसी साधन से शायद संभव न होता। इसलिए इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सत्याग्रह की लड़ाई लड़ने के साधनों में अखबार-पत्र एवं 'इंडियन ओपिनियन' भी एक अत्यंत उपयोगी और प्रबल साधन था।



           गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि― " मेरे लिए यह अखबार संयम की तालीम सिद्ध हुआ था, मित्रों के लिए वह मेरे विचारों को जानने का माध्यम बन गया था। मैंने अपने अनुभवों से अपनी पत्रकारिता को समृद्ध किया तथा पत्रकारिता ने भी उन्हें ऐसे अनुभव कराए जिससे उनका व्यक्तित्व समृद्ध हुआ तथा एक पत्रकार के रूप में उन्हें कुछ नई परंपराओं को विकसित करने तथा नए प्रतिमान गढ़ने में सफलता मिली। दक्षिण अफ्रीका में हुए पत्रकारिता के अनुभव महत्वपूर्ण सिद्ध हुए और एक पत्रकार के रूप में अपने दायित्वों, कर्तव्यों एवं मर्यादाओं का जीवंत अनुभव किया। साथ ही उन्होंने इस बात का भी अनुभव किया कि एक पत्रकार को किन-किन सीमाओं में बंधकर रहना चाहिए और किन-किन अवगुणों एवं आलोचनाओं से बचना चाहिए। उनका मानना था कि चाहे जो हो जाए, संपादक या अखबार को अपने विचार, परिणाम की चिंता किए बगैर व्यक्त करने चाहिए। यदि वे आम जनता के दिलों को जीतना चाहते हैं, तो उन्हें अलग नीति अख्तियार करनी होगी।



           गांधीजी सभी देश वासियों से आपसी प्रेम और राष्ट्रप्रेम चाहते थे और यह राष्ट्रप्रेम की भावना पत्रकारों से विशेष रूप से चाहते थे। गांधी के अनुसार पत्रकार को लोक-सेवक एवं देश-सेवक होना चाहिए। उनका मानना था कि पत्रकार समाज सुधारक होते हैं। पत्रकार का यहीं कर्तव्य " निर्मल धर्म का पालन एवं स्वच्छ देश सेवा " करना है। वे राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हैं। देश सेवक पत्रकार, जो भारत माता का पुत्र है, उसका कर्तव्य है कि वह अपने कार्यों से भारत-माता की सेवा करें। गांधी पत्रकार के रूप में समाचार पत्र में अपनी आत्मा उड़ेलते थे और दूसरे पत्रकारों से भी यही चाहते थे। गांधी पत्रकार की आत्मा को अपराजय देखना चाहते हैं, जो सरकार के दमन एवं दंड के बावजूद स्वतंत्र रहे और देश की आजादी के लिए संपत्ति के जप्त होने, जेल जाने तथा जान तक देने को तैयार हों। वे निर्भय, निःस्वार्थी और बलिदानी पत्रकार चाहते हैं क्योंकि पराधीन भारत को स्वाधीन करने के लिए ऐसे ही समर्पित बलिदानी, देश-सेवक, पत्रकारों की आवश्यकता है। गांधी स्वयं भी ऐसे ही पत्रकार थे।



         गांधी के संप्रेषण शक्ति का उत्कृष्टतम रूप भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के अवसर पर मिलता है। जिन लोगों ने 8 अगस्त 1942 को मुंबई के ग्वालिया मैदान में उनका भाषण सुना है, वे बता सकते हैं कि उनकी आवाज में क्या जादू था।  भारी वर्षा में कीचड़ से लथ-पथ विशाल जनसमूह ने गांधी के भाषण को, जो एक से भी अधिक घंटा तक चला, सांस बांधे सुना। ऐसा लगता था कि कोई मसीहा एक नए युग का संदेश दे रहा है। इस अवसर पर सभा में मौजूद " मधु लिमये " के शब्दों में― " भारत के इतिहास का वह महान क्षण था। उन्हीं के शब्दों में, " मैं गांधी के कुछ विचारों का आलोचक रहा हूँ, लेकिन उस दिन देर रात तक उनके प्रेरणादायक भाषण ने मुझे और मेरे जैसे लाखों युवा लोगों को मोहित कर दिया।"



              गांधी ने अपने लेखों, पत्र-पत्रिकाओं में बतलाया है कि अखबार, मासिक-पत्र, साप्ताहिक-पत्र आदि भी साहित्य-कार्य के अंग हैं, जो जनसाधारण को शिक्षित बनाने के एक जबरदस्त साधन हैं, पर इस साधन का अतिशय दुरुपयोग किया गया है। लोगों को सच्ची खबरें और अच्छी सलाह देने के बदले जानबूझकर झूठी, आधी-अधूरी खबर देकर अथवा सच्ची खबर को गलत दृष्टि-बिंदु से प्रस्तुत करके उन्हें गलत रास्ते पर ले जाने का काम समाचार पत्रों द्वारा बकायदा किया जा रहा है।



      ―  गांधीजी का अद्भुत संप्रेषण कौशल, शक्ति का स्रोत था। सत्य के प्रयोग के प्रति उनकी अटूट निष्ठा थी। इसलिए इमानदारी से कही गई उनकी " मन की बात " दूसरों को छुए बिना नहीं रहती थी।।

         

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