◆ समवाय पद्धति की अवधारणा
समवाय का अर्थ है― " परस्पर संबंध स्थापित करना, या साथ-साथ अर्थात दो तत्वों का एक साथ चलना।" इस विधि में सभी विधाओं का अध्ययन एक साथ कराया जाता है। इसलिए इसे समवाय विधि कहते हैं। समवाय वास्तव में विषयों अथवा उपविषयों को एक घड़ी में बांधने का शुभम साधन है, जिसके आधार पर विद्यार्थी को ज्ञान देना बहुत सरल हो जाता है। समवाय को इस रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है― " विषयों को पृथक-पृथक करके नहीं अपितु उसमें पारस्परिक संबंध स्थापित करके ज्ञान प्रदान करने की क्रिया को समवाय कहते हैं, अर्थात विभिन्न विषयों का पारस्परिक संबंध स्थापित कर पढ़ाने की क्रिया को समवाय कहते हैं। " बुनियादी शिक्षा में समवाय पद्धति का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसके द्वारा ज्ञान और कर्म के बीच संबंध स्थापित किया जाता है।
बुनियादी शिक्षा बालक-बालिकाओं का सर्वांगीण विकास चाहता है। गांधीजी मानते थे कि ज्ञान और मानव संस्कृति अखंड है। केवल हम अपने सुविधा के ख्याल से उक्त ज्ञानों को विभिन्न विषयों के बीच विभक्त कर दिए हैं। अतः हम जब तक विभिन्न विषयों के अस्तित्व को अलग-अलग बनाते रहेंगे। तब तक मानव संस्कृतियों की अखंडता को विद्यार्थी समझ नहीं पाएंगे। अतः बालकों को अखंड ज्ञान के परिचय हेतु समवाय के द्वारा उनका शिक्षण होना चाहिए।
बुनियादी शिक्षा में शिल्प के माध्यम से शिक्षा देने के विचार को गांधी जी ने रखा था। शिल्प के माध्यम से शिक्षा देना इसलिए स्वीकार किया गया है, क्योंकि काम और ज्ञान के बीच अटूट संबंध है। हम जितने क्रियाएं करते हैं उनके साथ ज्ञान की भी प्राप्ति करते हैं। बुनियादी शिक्षा में ज्ञान प्राप्त करने के इसी ढंग को उद्योग अथवा शिल्प द्वारा समवाय के नाम से अपनाया गया है। बुनियादी शिक्षा में जब छात्रों को पढ़ाया जाता है तो उस क्रम में इतिहास, भूगोल, वनस्पति विज्ञान, गणित एवं साहित्य तथा कला की बातों को मूल विषय के संदर्भ के रूप में उन सभी उपविषयों का ज्ञान दिया जाता है, तो स्वभाविक ढंग में उस सभी बातों और विषयों को बताया जाता है, जो बीच-बीच में आते हैं। उद्योग क्योंकि शून्य से नहीं लिया जाता है, वह सामाजिक जीवन से लिया जाता है और प्राकृतिक वातावरण से उसका संबंध है। इसलिए सामाजिक एवं प्राकृतिक ज्ञान साथ-साथ दिया जा सकता है।
◆ समवाय पद्धति का वर्गीकरण
― समवाय पद्धति कोई नई पद्धति नहीं है। गांधी के पूर्व शिक्षा-शास्त्रियों ने समवाय के द्वारा विभिन्न विषयों के पीछे संबंध स्थापित कर विद्यार्थियों को शिक्षित करने का विचार रखा था। प्रसिद्ध शिक्षा-शास्त्री हरबर्ट ने इसकी नियमित रूप से पहली बार एक शिक्षण विधि के रूप में अपनाया। उन्होंने दो प्रकार का समवाय प्रस्तुत किया था। पहला समतल और दूसरा शिखर समवाय। समतल समवाय अथवा समानांतर समतल वह कहलाता है, जहां एक विषय का अन्य विषयों के साथ समवाय होता है। शिखर अथवा लंब रूप समवाय वह कहलाता है जहां एक विषय में एक उप विषय का अन्य उपविषयों के साथ समवाय होता है। इसके अतिरिक्त बहुत से विद्वानों ने समवाय के अन्य प्रकार भी बताए हैं, जैसे:―
विषयों की दृष्टि से समवाय― बहुविषयक समवाय, एक विषयक समवाय, समीपवर्ती समवाय।
व्यवस्था की दृष्टि से समवाय― स्वभाविक, कृत्रिम और सम्मिश्रित समवाय।
पाठ्यक्रम की दृष्टि से समवाय― आंतरिक समवाय एवं बाहरी समवाय।
स्थिति की दृष्टि से समवाय― प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष समवाय।
◆ समवाय पद्धति की वैज्ञानिकता
― अब प्रश्न उठता है कि समवाय पद्धति वैज्ञानिक है अथवा नहीं। इस संबंध में अगर कहा जाए कि गांधी की संपूर्ण विचार भाषा ही वैज्ञानिक है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। समवाय पद्धति वैज्ञानिक है अथवा नहीं इसकी चर्चा निम्न आयामों के अंदर किया जा सकता है:―
ज्ञान अखंड तथा पूर्ण है। इसका यदि विभाजित करके खंडित रूप में अलग-अलग विषयों के नाम पर प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाए तो इसकी अखंडता नष्ट हो जाती है और विद्यार्थियों की मौलिकता ह्रास होने लगता है। समवाय वास्तव में शिक्षा का एकीकरण है। हम वास्तव में अलग-अलग विषयों का अध्ययन करते हैं तो हमारा दृष्टिकोण उस विषयों के अंतर्निहित ज्ञान खोज तथा मानव की ओर जाकर उलटी तथ्यों तक जाता है जिसके फलस्वरूप हमारा ज्ञान अधूरा होता है। वस्तु समवाय पद्धति के आधार पर किसी भी विषय की अंतर्निहित भावना तक प्रवेश किया जा सकता है। अतः इस दृष्टिकोण से विचार करने पर यह वैज्ञानिक जान पड़ता है।
सामान्य विद्यालय के शिक्षक केवल उसी विषय के संबंध में ही बतलाते हैं जिसे वे पढ़ा रहे हैं। व्याकरण के संबंध में केवल व्याकरण की ही घंटी में बताएंगे। दूसरी घंटी में व्याकरण के संबंध में कुछ नहीं बताएंगे। इस तरह की शिक्षण प्रणाली को मशीनीकरण विधि कह सकते हैं। क्योंकि शिक्षक एक मशीन के तरह व्यवहार करते हैं, छात्र एवं छात्राओं उस मशीन के पार्ट या पुर्जे के समान। छात्र उसी विषय के बारे में पूछ सकता है, जिस विषय को शिक्षक पढ़ा रहे हों। अगर छात्र को कोई नया प्रश्न दिमाग में आए तो वह नहीं पूछ सकता है, यह छात्र के मानसिक विकास को रोकता है।
― लेकिन बुनियादी पाठशाला में जिसमें समवाय पद्धति के द्वारा पढ़ाया जाता है, शिक्षक एक ही घंटी में भिन्न-भिन्न विषयों को पढ़ाते हैं और छात्र जिस किसी भी प्रश्न को पूछते हैं उसे बताने की कोशिश की जाती है। इसके चलते छात्रों का मानसिक विकास तीव्रता से होता है तथा छात्र जब बिना भय के शिक्षक से प्रासंगिक प्रश्न करते हैं तो अध्ययन एवं अध्यापन में समरसता आ जाती है। इस आधार पर हम समवाय पद्धति को अन्य किसी भी विधि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक कह सकते हैं।
आज हाई स्कूल के छात्रों को कुल 15 (पन्द्रह) विषयों का अध्ययन करना पड़ता है। यह विद्यार्थी को मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से बोझिल बना देता है। इसका कारण यह है कि एक ही तथ्य को विभिन्न विषयों के रूप में विभिन्न स्थानों पर याद रखना पड़ता है। जैसे जम्मू-कश्मीर पढ़ाना है तो इतिहास में जम्मू कश्मीर का इतिहास, भूगोल में जम्मू-कश्मीर का भौगोलिक अध्ययन, हिंदी में वहां की कविता या काव्य तथा साहित्यिक ढंग से प्राकृतिक चिंतन, नागरिक शास्त्र में संविधान संबंधी, समाजशास्त्र में नागरिकों का रहन-सहन, संस्कृति, विवाह, शादी एवं सामाजिक अवधारणा की पाठ पढ़ाया जाता है।
― किंतु समवाय पद्धति के द्वारा इन सब चीजों की एक साथ संबंधित करके पढ़ाया जाता है। जैसे जम्मू-कश्मीर के बारे में चर्चा होती है तो विद्यार्थी को वहां के इतिहास, संस्कृति, संविधान, सामाजिक वातावरण, भौगोलिक स्थिति, साहित्य, कला सभी से अवगत कर दिया जाता है। इस विधि से छात्र बहुत ही लाभान्वित होते हैं एवं इस प्रकार के ज्ञान से उनका जिज्ञासा में कमी नहीं होती है, तथा उन पर मानसिक दबाव नहीं पड़ता है। समवाय पद्धति में छात्रों को जिस विषय की पढ़ाई हो चुकी है तथा जिसकी होती है दोनों के संबंध में प्रश्नोत्तर होता है। इस तरह के शिक्षण पद्धति से विषय को स्थाई एवं गहराई से जानने का अवसर मिलता है। अतः यह पद्धति पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है।
अक्सर यह देखा जाता है कि शिक्षक एक ही विषय को 1 (एक) घन्टी लगातार पढ़ाते रहते हैं तो विद्यार्थियों में नीरसता आ जाती है। वैसी परिस्थिति में छात्र वर्ग में मौजूद रहता है लेकिन मानसिक रूप से अनुपस्थित रहता है। समवाय पद्धति में चूँकि एक पाली (घन्टी) में विभिन्न विषयों को मिलाकर पढ़ाया जाता है, जिसके फलस्वरूप छात्रों में नीरसता नहीं आती है। यह पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक पर आधारित है।
परंपरागत शिक्षा का सबसे बड़ा दोष या अवैज्ञानिक ज्ञान यह है कि वह विभिन्न ज्ञानों को विभिन्न विषयों के रूप में पढ़ाता है। जिसमें अत्यधिक पैसे एवं समय का अपव्यय होता है। जबकि समवाय पद्धति में कम से कम समय लगता है।
समवाय पद्धति के रीढ़ के रूपों में उद्योग अथवा शिल्प को स्वीकार किया जाता है। शिल्प के द्वारा ही विद्यार्थियों को सारे विषयों की शिक्षा देने का प्रयास किया जाता है। अर्थात यह " Learning By Doing " पर आधारित है। यह पद्धति पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है।
मनोवैज्ञानिक के अनुसार छात्र किसी चीज को लेकर जितना समझ सकता है, उतना उसके संबंध में रहकर नहीं। इसलिए इस शिक्षा पद्धति के दौरान बुनियादी पाठशाला में तरह-तरह के मेलों एवं त्योहारों का आयोजन किया जाता है। त्योहारों और मेलों के औचित्य को समझाया जाता है। देशाटन को प्रमुख स्थान दिया गया है। यह सब शिक्षा विज्ञान के अनुसार अत्यंत लाभकारी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समवाय पद्धति द्वारा शिक्षा देना पूर्णरूप में वैज्ञानिक है। यह परंपरागत शिक्षा के प्रत्येक वैज्ञानिक ढंगों को दूर करता है। अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि समवाय पद्धति पूर्ण रूप से वैज्ञानिक शिक्षण पद्धति है।
◆ समवाय पद्धति की व्यवहारिकता
―अब प्रश्न उठता है कि समवाय पद्धति व्यावहारिक है अथवा नहीं। बहुत सारे अध्यापक समवाय को असंभव और अव्यवहारिक कहकर इसका परित्याग कर देते हैं और अपना मत वे इस प्रकार देते हैं― समवाय पाठ में कृत्रिमता लाती है। वे समवाय पद्धति को निम्न तथ्यों के आधार पर अव्यवहारिक बताते हैं:―
विभिन्न विषयों को समवाय प्रणाली द्वारा पढ़ाना यदि असंभव नहीं है तो बहुत कठिन अवश्य है।
शिल्प को समवाय का केंद्र मानकर ज्ञान प्रदान करना असंभव है, क्योंकि शिल्प सभी विषयों के संबंधित नहीं किया जा सकता है।
समवाय के द्वारा पाठशाला का निश्चित कार्यक्रम नहीं चलाया जा सकता। समय-सारणी के आधार पर समय-सारणी की योजना नहीं बनाई जा सकती।
समवाय अध्यापक के व्यक्ति ज्ञान और योग्यता पर आधारित होगा इसलिए इसमें एकरूपता लाना असंभव है। शिक्षा स्तर में विभिन्नता होने पर विभिन्न विद्यालयों का एक जैसा स्तर नहीं रह सकता।
पाठ्यांतर क्रियाओं में समानता और एकरूपता नहीं आ सकती, कहीं पर विद्यार्थी खेल को अधिक महत्व देंगे और वहीं पर अन्य क्रियाओं को।
इस प्रकार की ज्ञान के आधार पर विद्यार्थियों के व्यक्तित्व असंतुलित रूप से विकसित होने का डर बना रहेगा। क्योंकि अपनी सूझबूझ के आधार पर कुछ बातों को चुनेंगे और कुछ को छोड़ देंगे।
इस प्रकार के ज्ञान से विद्यार्थियों में उच्च्श्रृंखलता भी आने का भय है।
― उपरोक्त तथ्यों के आधार पर आलोचक समवाय पद्धति को असंभव एवं अव्यावहारिक बताते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऊपर की गई आलोचनाओं में बहुत हद तक सच्चाई है। परंतु फिर भी इन आलोचनाओं के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि समवाय पद्धति अव्यावहारिक है। वास्तव में यह आलोचनाएं समवाय की मूलभूत आलोचनाएं नहीं बल्कि अव्यावहारिक है। इसलिए अगर सावधानी पूर्वक समवाय पद्धति को अपनाया जाता है तो यह इन दोषों से मुक्त हो सकता है। जहां तक प्रश्न है कि उद्योग के द्वारा सारे विषयों को नहीं पढ़ाया जा सकता, इसलिए यह व्यावहारिक नहीं है। तो यहां पर यह उल्लेख करना उचित जान पड़ता है कि समवाय में केवल उद्योग ही नहीं बल्कि प्राकृतिक तथा सामाजिक वातावरण भी आता है।
विनोबा जी ने कहा था―" संसार में कोई ऐसा वार नहीं जिसे उद्योग, प्राकृतिक तथा सामाजिक वातावरण के साथ समवाय न किया जा सके।" इसके अतिरिक्त अन्य कठिनाइयों जैसे प्रवीक्षक-वीक्षक की कमी, पाठ्यक्रम निर्धारण, पाली आदि की समस्या के सावधानी पूर्वक कार्य करने से दूर किया जा सकता है। ऊपर बताए हुए दोषों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि समवाय पद्धति अत्यधिक कठिन है, बल्कि उसके विपरीत इन दोषों को सावधानीपूर्वक दूर करने का व्यावहारिक प्रयास किया जा सकता है।
◆ निष्कर्ष
― ऊपर हमने समवाय के अर्थ, उसकी वैज्ञानिक दोषों एवं व्यवहारिक बनाने के विभिन्न तरीकों का अध्ययन किया तथा उपर्युक्त विवरणों के आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि समवाय पद्धति व्यवहारिक एवं वैज्ञानिक दोनों है। गांधी जी एवं अन्य शिक्षा शास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित समवाय पद्धति कोई तोता शिक्षा नहीं बल्कि जीवन की पूर्व तैयारी हेतु एक कदम है। समवाय पद्धति मानव और समाज, मानव और प्रकृति, और मानव और उद्योग के बीच एक सेतु का काम करता है। यही कारण है कि आज अनेक शिक्षा शास्त्रियों एवं महानव्यक्तियों ने इस पद्धति की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। वास्तव में समवाय पद्धति व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहयोग प्रदान कर सकता है।।
