रोजगारपरक शिक्षा और गांधी


भारत मे बेरोजगारी के कारण और उनका निवारण (गांधी दृष्टि में):-

बेरोजगारी का अर्थ है– " काम चाहने वाले व्यक्ति को कार्य क्षमता रहते हुए भी काम न मिलना "। बेरोजगारी किसी भी राष्ट्र के लिए चिंता का विषय है। बेरोजगारी के कारण राष्ट्रों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता, जिससे वे त्रस्त रहते हैं। भारत में यह समस्या कुछ ज्यादा ही गंभीर है। भारत के गांव-शहर तथा शिक्षित-अशिक्षित सभी इस समस्या से ग्रस्त हैं। अतः बेरोजगारी की समस्या के कारण और निवारण दोनों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।



जनसंख्या वृद्धि, कृषि पर अधिक भार, प्राकृतिक प्रकोप, मशीनीकरण एवं दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली– बेरोजगारी के मूल कारण हैं। भारत में उत्पादन एवं रोजगार वृद्धि पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। फलतः बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत की आबादी का 60 प्रतिशत भाग कृषि पर आधारित है। इधर जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि भूमि में दिनों-दिन कमी हो रही है। इसके कारण भी बेरोजगारों की संख्या में इजाफा हो रहा है। भारतीय किसानों को प्राकृतिक प्रकोपों का भी सामना करना पड़ता है– कभी अतिवृष्टि, तो कभी अनावृष्टि। इससे लोग बेकार हो जाते हैं। अतः इस समस्या के समाधान हेत्तु सहकारिता एवं वैज्ञानिक उपाय खेती के लिए अपनाने होंगे।   



वर्तमान युग तो मशीनों का युग है। इन मशीनों ने उद्योगों में लगे लाखों मजदूरों के काम छीनकर उन्हें बेकारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया है। इसी कारणवश हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मशीनीकरण का विरोध किया था। इससे छुटकारा पाने के लिए गाँवों तथा शहरों में कुटीर और लघु उद्योगों का जाल फैलाना होगा। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन लाकर ही इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। इसके लिए व्यावहारिक शिक्षा प्रणाली अपनानी होगी, जिससे ज्ञानी मस्तिष्क के साथ-साथ कुशल हाथ भी निकलें अर्थात शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाया जाए। साथ ही साथ लोगों में नौकरी परस्ती की प्रवृत्ति के बजाय रोजगार परक प्रवृत्ति जागृत करनी होगी। बेरोजगारी का दुष्प्रभाव प्रकारांतर से समाज पर पड़ता है, जिससे समाज अनेक समस्याओं से ग्रस्त हो जाता है। खासकर शिक्षित बेरोजगार युवकों का मस्तिष्क रचनात्मक न रहकर विध्वंसात्मक हो जाता है। समाज में आश्चर्य चकित करने वाले अपराध हो रहे हैं, जो बेरोजगारों के मस्तिष्क की उपज हैं। अशिक्षितों के बेरोजगार रहने से उतनी गंभीर समस्या नहीं उत्पन्न होती, जितनी गंभीर समस्या शिक्षित बेरोजगारों से उत्पन्न होती है।



वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी भूख बढ़ा दी है। हम अपनी आवश्यकता पूर्ति व धन-उपार्जन के लिए शहरों की ओर पलायन करते जा रहे हैं, जिससे एक तरह की अव्यवस्था बनती जा रही है। इस बाज़ार भ्रमजाल को गांधी के रास्ते पर चलकर ही तोड़ा जा सकता है। कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनरुज्जीवन ही इसका एकमात्र विकल्प है। भारत ग्राम-प्रधान देश है, यहां का ग्रामीण समाज कृषि पर निर्भर है और कृषि कई अन्य तरह की परम्परागत उद्यमों पर निर्भर है। यहां की कमजोर होती ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने हमारे सामने कई तरह की समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं। गांव के मुकाबले शहर रोजगार का केन्द्र बनता जा रहा है। गांवों से पलायन होती आबादी एक तरफ कंक्रिट के जंगल और बड़े-बड़े उद्योग कल-कारखानों को लगाने में मददगार साबित हो रही है तो वही दूसरी ओर इससे नई तरह की समस्या भी उत्पन्न होती रही है। कमजोर होती ग्रामीण अर्थव्यवस्था से बेरोजगारी की दर बढ़ती जा रही है।



आज हमारे सामने विश्व की तमाम तरह की अर्थव्यवस्था का उदाहरण मौजूद है। इन अर्थव्यवस्थाओं के मद्देनजर यह आकलन करना आसान हो गया है कि किस तरह की व्यवस्था अपनाने से विकास को सही मायने में पाया जा सकता है। ये तमाम तरह की अर्थव्यवस्थाएं सम्पूर्ण विकास के लिए नाकाफी साबित हो रही हैं। तब हमारे सामने प्राचीन और परम्परागत व्यवस्था, जिसके हिमायती महात्मा गांधी भी थे, बच जाता है। गांधी के ग्राम मॉडल के जरिए भी बढ़ती हुई आबादी को रोजगार और सम्मान दिया जा सकता है। देश के विकास में कमजोर से कमजोर आदमी की भागीदारी गांधी के ग्राम मॉडल के साथ सुनिश्चित की जा सकती है। गांधीजी कहते हैं― ‘‘ मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब-से-गरीब आदमी भी यह महसूस करें कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्व है। "




             आजादी के बाद हमने विकास का जो रास्ता अख्तियार किया, उस पर चल कर, आज बहत्तर साल बाद भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करने का विमर्श हम कर ही रहे हैं। इस व्यवस्था ने हमें आगे जरूर बढ़ाया, पर सही मायने में विकास से हम दूर ही रहे हैं। हमारे पुरखों ने जो दिशा तय की थी उससे हम भटक गए, जिसका नतीजा यह हुआ कि सिर्फ शहर केन्द्रित विकास हम कर पाए हैं। जिसमें आधी से ज्यादा आबादी को हमने दरकिनार कर दिया है, जो परम्परागत रूप में हमारे विकास की धुरी रहे हैं। यह पूर्ण सत्य है कि गांव बदलेगा तभी ही देश बदलेगा। देश के हर हाथ को काम मिलेगा, तब सही मायने में हम खुशहाल बनेंगे। इसके लिए आवश्यक है कि गांवों को मजबूत किया जाए।


आज गांवों की परिस्थिति भी बदली-बदली नज़र आती है। गांव भी बाज़ार के जद में है। इस बाज़ारवादी व्यवस्था ने लोगों के शोषण का काम किया है। इसने ऐसा तंत्र विकसित किया है कि लोगों को गैरजरूरी वस्तु भी जरूरी-सी जान पड़ती है। बाज़ार के भ्रम का जाल गांव-गांव तक फैल चुका है। आज हम मशीन उत्पादित वस्तुओं के उपभोक्ता बन चुके हैं। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी भूख बढ़ा दी है। हम अपनी आवश्यकता पूर्ति व धन-उपार्जन के लिए शहरों में पलायन करते जा रहे हैं, जिससे एक तरह की अव्यवस्था बनती जा रही है। इस बाज़ार भ्रमजाल को गांधी के रास्ते पर चल कर ही तोड़ा जा सकता है।कृषि आधारित ग्रामीण व्यवस्था को बचाया जा सकता है।




हमारे देश में ग्रामीण समाज की समृद्ध परंपरा रही है, जो हर लिहाज से आत्मनिर्भर समाज था। अंग्रेजी शासन व्यवस्था के दौरान भी ग्रामीण समाज सशक्त था। अंग्रेजों द्वारा आत्मनिर्भर ग्रामीण व्यवस्था को साजिशन नष्ट करने का काम किया गया। भारत के ब्रिटिश गवर्नर " सर चार्ल्स मेटकाफ " ने, भारत के ग्रामीण समाज के लिए कहा― ‘‘ ये ग्राम समाज छोटे-छोटे प्रजातंत्र हैं, जिन्हें अपनी आवश्यकता की लगभग हर वस्तु अपने भीतर ही मिल जाती है। जो विदेशी संबंधों से लगभग स्वतंत्र होते हैं। वे ऐसी परिस्थिति में भी टिके रहते हैं, जिनमें दूसरी हर वस्तु का अस्तित्व मिट जाता है "।  चार्ल्स मेटकाफ ने जिस भारतीय समाज को देखा था वह समाज हर लिहाज से आत्मनिर्भर समाज था। यह समाज उपभोक्ता नहीं बना था। हम उत्पादक थे। भारतीय ग्रामीण समाज का अपना अर्थतंत्र व समाजतंत्र था, जिसकी बुनियाद पर ग्रामीण व्यवस्था टिकी हुई थी। गांधी ने इस व्यवस्था का सूक्ष्मावलोकन किया था। गांधी एक तरफ स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे, तो दूसरी तरफ भारत के ग्रामीण समाज के ताने-बाने को समझने और इसका निदान करने के प्रयास में लगे थे। उन्होंने यह समझ लिया था कि भारत को जितनी राजनीतिक आज़ादी की आवश्यकता है उतनी ही इसके सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने की।  तभी गांवों का स्थायी विकास संभव हो सकेगा और गांव विकास का केन्द्र बनेगा। आज दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्था के केन्द्र में विकास का सिद्धांत है, आज इस अर्थव्यवस्था का दुष्परिणाम हमारे सामने है। जिसमें बहुसंख्यक आबादी विकास में भागीदार नहीं बन पाती है। विकास कुछ लोगों द्वारा और कुछ लोगों तक सीमित रहता है। जबकि विकास का गांधीवादी मॉडल नीचे से ऊपर तक बढ़ने का सशक्त मार्ग दिखाता है।


               हमारे गांव की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। किसानी हमारे ग्रामीण समाज का मुख्य पेशा रहा है। किसान अन्न उपजा कर अपना पेट तो भरता ही है साथ ही वह सबको अन्न द्वारा जीवन देता है। आज यह पवित्र किसानी मजबूरी में किया जाने वाला काम बन गया है। इसमें से जीवन देने की पवित्र भावना निकल गई है। बुद्धि और श्रम के बीच के विभेद ने इस भावना की महत्ता को कम किया है। आज श्रमशील व्यक्ति की प्रतिष्ठा समाज में नहीं है, सिर्फ बुद्धि को वरीयता दी जाने लगी है। खैर, आज किसानी घाटे का सौदा बनता जा रहा है। आर्थिक और सामाजिक दोनों लिहाज से। हमने जब से नई-नई तकनीकों का ईजाद किया और खेती का काम भी हम इन तकनीकों के सहारे करने लगे हैं, इन तकनीक के प्रयोग से उत्पादन तो बढ़ा है इसके साथ ही लागत भी कई गुणा बढ़ गई है। दूसरी तरफ रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से कई तरह की बीमारियां भी लोगों में बढ़ने लगी। आज अत्यधिक उर्वरकों के प्रयोग से खेत ऊसर बनते जा रहे हैं। ये बातें किसानी के लिए मौजूदा समय में गंभीर संकट की ओर इशारा करता है।


कीटनाशक और उर्वरक के प्रयोग से एक तरफ खेती की लागत बढ़ रही है तो दूसरी तरफ लागत के अनुपात में बाजार मूल्य का संकट बढ़ता जा रहा है। यह घाटे का सौदा लम्बा चलने वाला नहीं है। अब हमारे सामने एक ही विकल्प बचता है परम्परागत ढंग से खेती का। परम्परागत तरीके से खेती करने पर लागत को कम से कम किया जा सकता है। खेती को फायदेमंद बनाने के लिए परम्परागत अन्य विकल्पों पर भी विचार करना होगा। खेती के पूरक के रूप में पशुपालन की परम्परा हमारे यहां पुरानी परम्परा रहा है। पशु उत्पाद से न सिर्फ आमदनी बढ़ाई जा सकती है बल्कि कृषि कार्य में भी यह मददगार साबित होता है। पशु गोबर खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के काम आती है। गाय का मूत्र नीम के साथ मिला कर पौधों को कीट से बचाने के काम आता है। आज हमारे समाने एक और बड़ी समस्या खड़ी हो रही है वह है, जोत की जमीन की समस्या। आबादी बढ़ती जा रही है, उसी अनुपात में जोत की जमीन का बंटवारा भी होता जा रहा है। जिससे दिन-प्रतिदिन जोत की जमीन कम होती जा रही है। जोत के जमीन का संकट आने वाले समय में सबसे गंभीर संकट बनने वाला है। गांधी ने इसका समाधान निकाला-सामुदायिक खेती और सामुदायिक रूप से पशुपालन। इस समस्या से गांवों के लोग सामूहिक रूप से खेती और पशुपालन करें तो जोत के जमीन की समस्या से निपटा जा सकता है।



हमें आज गांवों को और खेती को बचाने के लिए परम्परागत उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। मोटे तौर पर हम अपने परम्परागत उद्योगों को दो वर्गों में बांट सकते हैं। पहला- कृषि और उससे जुड़ा हुआ उद्यम और दूसरा- ग्रामीण समाज का पंरपरागत दस्तकारी और कारीगरी। परम्परागत उद्यम प्राचीन समय से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को संचालित करने का काम कर रही है। हमारे यहां खेतिहर-ग्रामीण समाज का हुनर विश्व प्रसिद्ध था। भारत का बना कालीन, दरी, ऊनी शॉल, रेशम के वस्त्र आदि की मांग दुनिया भर में थी। तांबे के बर्तन, मिट्टी के खिलौने और उस पर की गई चित्रकारी मनमोहक होती थी| इसकी बाजार में अच्छी कीमत थी। खेती के साथ कारीगरी और दस्तकारी दोनों पूरक अर्थव्यवस्था का काम करती हैं। आज इस तरह के हुनर विकसित कर ग्रामीण समाज आत्म-निर्भर बनने के साथ-साथ उत्पादित वस्तु को बेचकर अपनी जरूरत पूरी कर सकती है। अंग्रेजों के आने के बाद हमारी ग्रामीण व्यवस्था ध्वस्त हुई। आज़ादी के बाद हम ग्रामीण परम्परागत व्यवस्था को नहीं बचा पाए। महात्मा गांधी कृषि के साथ उद्यम की इस व्यवस्था की उपादेयता का महत्व समझते थे। इस वजह से परम्परागत व्यवस्था को बचाने और उसको आगे लाने का प्रयास करते रहे है। दरअसल गांधी जिस स्वराज्य का ताना-बाना बुनना चाहते थे उसके केन्द्र में कृषि व्यवस्था थी। कृषि व्यवस्था को समर्थन देकर और बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए वे परम्परागत कला-कौशल को बचाना चाहते थे। गांधी मॉडल में अत्यधिक उत्पादन के बजाय लोगों द्वारा उत्पादन पर विशेष बल था।



              ― नए समाज निर्माण में शिक्षा के महत्व को गांधी समझते थे। उन्होंने तत्कालीन शिक्षा पद्धति को अपनाने के बजाए परम्परागत पद्धति के जरिए विद्यार्थियों का विकास करने की नीति बनाई थी, जो आने वाले समय में बेहतर समाज का निर्माण कर सकें। गांधी कहते हैं― ‘‘ शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक या प्रौढ़ के शरीर, मन तथा आत्मा की उत्तम क्षमताओं का सर्वांगीण विकास किया जाए और उन्हें प्रकाश में लाया जाए। अक्षर-ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और न उसका आरंभ है। वह तो मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में केवल एक साधन है। अक्षर-ज्ञान अपने-आप में शिक्षा नहीं है। इसलिए मैं बच्चे की शिक्षा का श्रीगणेश उसे कोई दस्तकारी सिखाकर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरम्भ करें उसी क्षण से उसे उत्पादन के योग्य बनाकर करूंगा। इस प्रकार प्रत्येक स्कूल आत्म-निर्भर हो सकता है।’’


गांधी की शिक्षा दृष्टि में स्वावलम्बन और उससे आगे बढ़ने की बात है। गांधी जानते थे कि सभ्य और स्वस्थ समाज निर्माण के लिए रोजगार का सृजन आवश्यक है। रोजगार योग्य बनाने के लिए शिक्षा का रोजगारपरक होना जरूरी है। गांधी इन अर्थों में रोजगारपरक शिक्षा के हिमायती थे। यह शिक्षा व्यवस्था गांवों से पलायन रोक सकती है, हर हाथ को काम दिला सकती है, यह व्यवस्था काम के साथ सम्मान दिला सकती है।।

           

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