गांधीजी के एकादश व्रत
एकादश व्रत का नाम लेते ही हमारे भारतीय परंपरा के अनुसार एकादशी के दिन उपवास करके पूजा-भजन आदि करने का व्रत हमारे मन में याद आता है, लेकिन गांधीजी का एकादश व्रत इससे नितांत भिन्न है। गांधी जी ने सन 1915 में गुजरात के अहमदाबाद के पास अपने प्रयोगों को चलाने के लिए साबरमती आश्रम की स्थापना की तथा वहां रहने वाले आश्रम वासियों के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने कुछ नियम बनाएं। यह 11 नियम ही बाद में एकादश व्रत के नाम से विख्यात हुए। एकादश व्रत के ये नियम निम्नलिखिति हैं:-
- अहिंसा
- सत्य,
- अस्तेय,
- ब्रह्मचर्य,
- असंग्रह (अपरिग्रह)
- शरीर श्रम,
- अस्वाद,
- सर्वत्र भय वर्जनं,
- सर्वधर्म समानत्वं,
- स्वदेशी,
- स्पर्श भावना
― बनारस के हिंदी विश्वविद्यालय में गांधी जी द्वारा दिए गए भाषण से आकर्षित होकर " श्री विनोबा भावे " गांधीजी के पास आए और साबरमती आश्रम में बस गए। उन्होंने आश्रम के सूचना पट्ट पर लिखे गए 11 नियमों को पढ़ा और बार-बार उन्हें याद करने की सुविधा के लिए मराठी में उनका एक श्लोक बनाया, जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार है:-
" अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, असंग्रह
शरीरश्रम, अस्वाद सर्वत्र भयवर्जन
सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी, स्पर्श भावना
विनम्र व्रत निष्ठा से "एकादश" सेव्य ।।
समय-समय पर गांधीजी अपने आश्रम के इन एकादशी व्रतों के संबंध में प्रकाश डालते रहें और अपने प्रवचनों के संबंध में इनकी व्याख्या भी करते रहे, फिर भी जब नमक सत्याग्रह के बाद गांधीजी को " यरावदा जेल " में बंदी बना लिया गया तो अपने आश्रम वासियों के मार्गदर्शन के लिए हर मंगलवार के दिन इन 11 व्रतों के बारे में व्याख्या करते हुए उन्होंने पत्र लिखें। जिनका बाद में संकलन " मंगल प्रभात " नाम से प्रकाशित हुआ।
गांधीजी के द्वारा प्रतिपादित इन एकादश व्रतों की संछिप्त व्याख्या निम्नलिखिति रूप में प्रस्तुत हैं:-
◆ अहिंसा
गांधीजी ने अहिंसा को अपने एकादशी व्रत में प्रथम स्थान दिया। इसका कारण यह है कि वह अहिंसा को अपने सभी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कार्यों में प्रधान साधन के रूप में मानते और प्रयोग करते थे। गांधीजी शुद्ध साधन द्वारा ही शुद्ध साध्य को प्राप्त करने के विषय पर अटल विश्वास रखते थे। इसलिए वे शुद्ध साधन पर जोर देते थे। वह यहां तक कहते थे कि अगर अहिंसा के द्वारा स्वराज्य नहीं मिलेगा, तो हिंसा द्वारा प्राप्त स्वराज्य नहीं चाहिए। वह भारत को युगो-युगो से अहिंसा की तपोभूमि मानते थे। गांधी जी की दृष्टि में अहिंसा का अर्थ किसी को मारना-पीटना या हत्या करने से छोड़ना नहीं था, उनकी अहिंसा केवल नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक है।
हर प्राणी पर प्रेम दिखाना, सब की सेवा करना और आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के हित के लिए अपना स्वार्थ का परित्याग करना भी उनकी अहिंसा के अंतर्गत है। उनकी अहिंसा कायरों की नहीं बल्कि बहादुरों की है। शस्त्र से दूसरों का प्राण हर कर अपने प्राण बचाने की चेष्टा करने वाला कायर होता है। अहिंसा वीर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साहस पूर्वक अपने प्राणों की बाजी लगाता है। वह कभी भी पीठ नहीं दिखाता बल्कि छाती पर शस्त्र का प्रहार झेलता है। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका और भारत में भी निरंकुश शासन के विरोध में अहिंसात्मक प्रतिशोध को ही शस्त्र के रूप में अपनाया। गांधीजी के एकादशी व्रतों में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है। मन, वचन और कर्म से अहिंसा का आचरण करना उनका ध्येय था।
◆ सत्य
" सत्यमेव जयते " यह हमारे स्वतंत्र भारत की एक आदर्श उक्ति है। सत्य का अर्थ गांधीजी की दृष्टि में मात्र यथार्थ कहना भर ही नहीं था अपितु वे सत्य को पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप मानते थे और इस पूर्ण सत्य को इस मानव जन्म में प्राप्त करना असंभव भी मानते थे। प्रारंभ में वे ईश्वर को सत्य मानते थे परंतु बाद में वे सत्य को ही ईश्वर मानने लगे।
उन्होंने अपने आंदोलन की प्रक्रिया को नाम देने के संबंध में भी काफी सोच-विचार किया तथा अंत में सत्याग्रह नाम रखा। इसका अर्थ है सत्य का आचरण करने के लिए आग्रह, चाहे उसके लिए तन, मन, धन, सर्वस्व का बलिदान ही क्यों ना करना पड़े। सत्य के आचरण पर दृढ़ रूप में विश्वास ना रखने वाला व्यक्ति उनकी दृष्टि में सच्चा सत्याग्रही नहीं बन सकता। अहिंसा के साधन से वे सत्य रूपी साध्य तक पहुंचना चाहते थे। उनकी दृष्टि में सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस प्रकार सत्य और अहिंसा को मिलाकर उन्होंने अपना सारा आंदोलन और सारे कार्यक्रम चलाकर दुनिया के सामने एक अनूठा उदाहरण पेश किया।
◆ अस्तेय
अस्तेय से अभिप्राय हैं- " चोरी नहीं करना "। दूसरों की वस्तु को उनके अनुमति के बिना लेना भी गांधीजी चोरी मानते थे। इतना ही नहीं अपनी मुख्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को लेना और रखना भी वे चोरी मानते थे। समुचित परिश्रम किए बिना अधिक वेतन लेना भी उनकी दृष्टि में चोरी थी।
◆ ब्रह्मचर्य
साधारण रूप से अविवाहित रहना ब्रह्मचर्य कहलाता है। हमारी पुरानी व्यवस्था के अनुसार विद्यार्थी आश्रम को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता था। किंतु गांधीजी गृहस्थों के लिए भी इंद्रिय निग्रह को आवश्यक मानते थे। समाज की सेवा औए प्रगति के लिए वह ब्रम्हचर्य को अत्यंत जरूरी समझते थे। यदि कोई दांपत्य जीवन में लगे रहने पर अपने परिवार के पालन-पोषण की चिंता में ही तत्पर रहेगा तो वह समाज या देश की सेवा क्या कर सकता है ??
केवल शरीर से ही नहीं, मन, वचन से भी इस ब्रम्हचर्य का पालन होना चाहिए, नहीं तो वह मिथ्याचार्य हो जाता है। इसलिए गांधीजी इस विषय में सदा सतर्क रहते थे और दूसरों को भी सचेत करते रहते थे।
राम नाम का स्मरण, निरंतर सेवा कार्य में रहना, रात को सोने तक शरीर श्रम करना, कभी एकांत में ना रहना, स्वाद के आकर्षण में ना पड़ना, वे ब्रह्मचर्य व्रत की साधना के लिए अत्यंत आवश्यक मानते थे।
◆ अपरिग्रह/असंग्रह
अपरिग्रह से अभिप्राय है- "आवश्यकता से अधिक वस्तुओं, रुपयों-पैसों, धन-दौलतों, संपदाओं का संग्रह नहीं करना "। गांधीजी का मानना था कि यदि कोई आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उपयोग करता हैं, तो वह दूसरों का अधिकार छीनने का दोषी बनता है। संग्रह के प्रलोभन से ही सामाजिक अपराध या हिंसा कांड होते हैं। किसी के संग्रह को देखकर ही दूसरों को चोरी की प्रेरणा मिलती है। इसलिए जब समाज के सब लोग स्वेच्छा-पूर्वक असंग्रह व्रत का आचरण करने लगेंगे तो देश में गरीबी की समस्या स्वतः ही समाप्त हो जाएगी।
◆ शरीरश्रम/परिश्रम
हमारे देश और कई दूसरे देशों में भी शरीरश्रम को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता हैं। शारीरिक परिश्रम करना एक हीन कार्य माना जाता है। सभी लोग शरीर श्रम से बचने और केवल सफेदपोश काम धंधे या नौकरिया करना ही पसंद करते हैं। हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में भी शरीर श्रम की महत्ता को कोई स्थान प्रदान नहीं किया गया हैं। इसके फलस्वरूप श्रमजीवी और बुद्धिजीवी के नाम पर समाज दो वर्गों में बट गया हैं। अतः इस भेद को मिटाने के लिए तथा श्रम की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए गांधीजी ने शरीर श्रम को अपने एकादशी व्रत में स्थान दिया। उनका मानना था कि हर एक नागरिक के काम करने से समाज में उत्पादक शक्ति बढ़ेगी और बेरोजगारी भी समाप्त होगी इसलिए उन्होंने चरखे को इस शरीरश्रम का प्रतीक माना है।
◆ अस्वाद
गांधीजी शुद्ध शाकाहारी भोजन को ब्रह्मचर्य व्रत के पालन में सहायक हेत्तु अनिवार्य मानते थे। जीभ के चटोरेपन के वशीभूत होकर व्यक्ति अनेक प्रकार की गभीर बीमारियों से ग्रसित हो जाता हैं। खान-पान पर नियंत्रण से व्यक्ति अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकता हैं तथा चिरजीवी हो सकता है, ऐसा गांधीजी का मानना था।
◆ अभय/निर्भयता
" सर्वत्र भयवर्जन: "- इसका अर्थ है " निर्भयता "। सत्य बोलना और सदा सत्य का आचरण करने और असत्य का विरोध करने के लिए निर्भयता बहुत अनिवार्य है। गांधीजी ने अत्याचारी और निरंकुश विदेशी शासन के प्रति विरोध करने के लिए सत्याग्रहियों को निर्भयता का पाठ पढ़ाया। घर में लोक-लाज के मारे पड़े रहने वाली स्त्रियों को भी उन्होंने निर्भयता का पाठ सिखाकर सत्याग्रह संग्राम में वीर नारियों के रूप में उन्हें प्रोत्साहित किया। निर्भयता को समाज विरोधी कामों के लिए दुरुपयोग ना करके बल्कि हमें लोकहित के लिए सदुपयोग करना चाहिए।
◆ सर्वधर्म समभाव:
सभी धर्म ईश्वर की प्राप्ति के लिए एक साधन मात्र हैं। इनमें कोई बड़ा या छोटा नहीं है। धार्मिक असहिष्णुता या सांप्रदायिकता के कारण हमारे देश में और दूसरे देशों में भी अनेक प्रकार के झगड़े होते रहे हैं। गांधीजी के अनुसार सबका ईश्वर एक है इसलिए सर्वमानव, सौभ्र्त्तृत्व की वृद्धि करने के लिए सर्वधर्म समभाव की जरूरत है। गांधी जी आश्रम में प्रार्थना करते समय सभी धर्मों के मुख्य ग्रंथों से कुछ अंशों को पढ़ाया करते थे। उनके आश्रम में सभी धर्मों के लोगों को सामान स्थान और सम्मान मिलता था। हमारे देश में सांप्रदायिक सद्भावना के लिए सर्वधर्म समभाव के व्रत का पालन करना अत्यंत आवश्यक है।
◆ स्वदेशी भावना
अपने देश में बनी वस्तुओं के प्रति आदर रखना, अपने ग्रामीण उद्योग-धंधों को प्रोत्साहित करके गरीबी और बेरोजगारी को मिटाना तथा आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर होना ही स्वदेशी का मर्म हैं। इसलिए ही गांधीजी ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार आंदोलन शुरू किया था। किसी भी देश की सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, भाषा इत्यादि के प्रति श्रद्धा बढ़ाने और संसार के देशों में प्रतिष्ठा पूर्वक अपनी अस्मिता को सुस्थिर रखने के लिए स्वदेशी भावना का विकास अत्यंत आवश्यक है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विदेशी वस्तुओं तथा विदेशियों से द्वेष करना या उनसे पारस्परिक संबंध ना रखना।
◆ स्पर्श भावना
हमारे देश में सदियों से जड़े जमा कर बैठी छुआछूत की कुप्रथा को अंत करने के लिए ही गांधीजी ने स्पर्श भावना को अपने एकादशी व्रतों में स्थान दिया। मनुष्य मात्र की समानता को स्वीकार करना, किसी को भी आवश्यकता पड़ने पर छूने से इंकार ना करना इसका मतलब है। गांधी जी ने अपने आश्रम में अनेक अछूत परिवारों को आदर पूर्वक स्थान दिया तथा इसके लिए अनेक कष्टों को झेलने पर भी गांधीजी कभी भी विचलित नहीं हुए। देश भर में भ्रमण करके उन्होंने छुआछूत का खंडन किया।
― एकादशी व्रतों को नम्रता पूर्वक आचरण में लाने के लिए गांधीजी कहते थे कुछ लोगों ने नम्रता को भी एकादश व्रत में शामिल करने की सलाह दी लेकिन गांधीजी ने कहा कि नम्रता को व्रत के रूप में नहीं रख सकते हैं क्योंकि इन एकादशी व्रतों की शुद्ध आचरण के फलस्वरुप सहज ही नम्रता प्रकट होती है। गांधीजी का एकादश व्रत केवल भारत वासियों के लिए ही नहीं बल्कि विश्व-मानव हित के लिए भी शत-प्रतिशत अनुकरणीय एवं अनुसरणीय हैं।।
