◆ यंग इंडिया- एक साप्ताहिक पत्रिका
यंग इंडिया (Young India) एक साप्ताहिक पत्रिका थी, जिसे महात्मा गांधी प्रकाशित करते थे। पत्रिका अंग्रेजी में निकलती थी। गांधीजी ने अपने विचार एवं दर्शन को प्रसारित करने लिए इसे आरम्भ किया था। इसके लेखों में अनेक सूक्तियाँ होती थीं, जो लोगों के लिये महान प्रेरणा का कार्य करती थीं।
गांधीजी के सामने मद्रास प्रेसीडेंसी तथा अंग्रेजी सरकार के समक्ष समय-समय पर अपने विचारों को प्रकट करने का कार्य भी महत्वपूर्ण था और उनके विचार में यह सार्वजनिक हित में भी था कि वे " यंग इंडिया " की पत्रकारिता से जुड़े रहे। गाँधीजी का निष्कर्ष था कि अभी कुछ साल तक शिक्षित भारतीयों से और विशेषकर मद्रास के लोगों से जो कुछ कहा जाए वह अंग्रेजी में ही कहा जाए।
अंग्रेजों तथा दक्षिण भारतीयों को गुजराती तथा हिन्दी उतनी समझ में नहीं आती थी, इसलिए गाँधीजी ने अंग्रेजी साप्ताहिक " यंग इंडिया " का प्रकाशन 7 अक्टूबर, 1919 को प्रारंभ किया। इसके प्रकाशक महादेव देसाई और मुद्रक शंकरलाल बैंकर थे। गाँधी ने इस पत्र का संपादकत्व ग्रहण करने पर पहली बार पाठकों को संबोधित करते हुए एक टिप्पणी " ग्राहक और पाठकों " शीर्षक से की थी। जिसमें उन्होंने 'यंग इंडिया' का कार्यभार ग्रहण करने का संक्षिप्त इतिहास दिया था तथा उसकी रीति-नीति एवं उद्देश्य को भी स्पष्ट किया था।
गांधीजी के अनुसार 'यंग इंडिया' व्यक्तियों के प्रति होने वाले अन्यायों की ओर ध्यान आकृष्ट करने का कर्तव्य तो निभाएगा ही, साथ ही रचनात्मक सत्याग्रह और यदा-कदा परिशोधक सत्याग्रह की ओर भी शक्ति लगाएगा। परिशोधक सत्याग्रह का मतलब है, जहाँ रौलट अधिनियम जैसी किसी दुराग्रह पूर्ण और गिराने वाले अन्याय को दूर करने के लिए प्रतिरोध आवश्यक हो जाए वहाँ सविनय प्रतिरोध करना।
गाँधीजी ने लिखा है- "भारत की आत्मा को स्वतंत्र बनाए रखना हमारा अभिप्राय है, इसलिए मैं भारत की आजादी के लिए जी रहा हूँ और उसी के लिए मरूँगा। गाँधीजी का यही निश्चित उद्देश्य था और 'यंग इंडिया' के प्रकाशन का लक्ष्य यही था कि वे सत्य और अहिंसा से स्वराज्य प्राप्त करे और अंग्रेजी जानने वाले विशाल जन-समुदाय को अपने इन आदर्शों से परिचित कराएँ।"
जब 1921 में गाँधी 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' चला रहे थे, तो पूरे देश में हजारों लोग जेल में भेजे जाने लगे। हर सप्ताह जो सत्याग्रही गिरफ्तार कर जेल भेजे जाते, उनके नाम वे 'यंग इंडिया' में प्रकाशित करते थे। उन्होंने इस पत्र के माध्यम से सत्याग्रहियों को जेल के घोर कष्टों के बारे में भी आगाह किया। 1922 से 1932 के दौरान गाँधीजी जब भी जेल में थे, उस समय " यंग इंडिया तथा नवजीवन " का सम्पादन शुएब कुरैशी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जयरामदास दौलतराम, जॉर्ज जोसेफ आदि ने किया।
गाँधीजी ने जेल से लौटकर 'यंग इंडिया' का कार्यभार संभाला, तो उन्होंने 3 अप्रैल, 1924 को "धन्यवाद" शीर्षक से संपादकीय टिप्पणी में लिखा- "शुएब कुरैशी की चुटीली शैली सरकार के लिए असाध्य सिद्ध हुई। सरकार ने भी उन्हें दम नहीं लेने दिया। इसके बाद राजगोपालाचार्य आए। उनके लेख विद्ववतापूर्ण थे और उनसे सत्याग्रह संबंधी गहन सत्यों की अद्भुत पकड़ जाहिर होती थी। जार्ज जोसेफ की प्रखर शैली पाठकों को अब भी याद होगी। इन लोगों ने समय पर 'यंग इंडिया' की सहायता की। उसके लिए इन मित्रों को अत्यंत हार्दिक धन्यवाद देना मेरा प्रथम कर्तव्य है।"
गाँधीजी ने सब प्रकार से संयम पर बल दिया। 7 अगस्त, 1924 के 'यंग इण्डिया' में उन्होंने लिखा- "प्रेस कानून खत्म हो गया है और विद्रोहपूर्ण और अपलेख नियमों के अंतर्गत नयी व्यवस्थाओं के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। मैं कोई गैर जिम्मेदार या अनुचित कटु आलोचना का प्रेमी नहीं हूँ। किन्तु चेतावनी के फायदेमंद होने के लिये स्वतः इसका पालन होना चाहिये न कि बाहर से इसे थोपा जाये।"
गाँधीजी प्रेस की स्वतंत्रता के समर्थक थे, साथ ही उन्हें प्रेस के दायित्वों का भी पूरा आभास था। उन्होंने लिखा है- " पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा होना चाहिये। आधुनिक पत्रकारिता में सतहीपन, एकतरफापन, अशुद्धियों और बल्कि बेईमानी के घुस जाने के कारण ईमानदार व्यक्ति भी, जो सिर्फ न्याय होता देखना चाहते हैं, लगातार पथभ्रष्ट हो रहे हैं।"
मीडिया में जिस तरह सतहीपन, पक्षपात, अवास्तविकता, बेईमानी, कदाचार की प्रवृत्ति प्रविष्ट है, वह ईमानदार लोगों को गलत रास्ते पर ले जाने वाली है। गाँधी ने लिखा है - "मेरे सामने पत्र-पत्रिकाओं के ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें वीभत्स बातें दी गयी हैं। उनमें सांप्रदायिकता भड़काने, घोर मिथ्या कथन और राजनैतिक हिंसा को भड़काने की हत्या के समान गंभीर बातें हैं। सरकार के लिए ऐसी पत्र-पत्रिकाओं पर मुकदमें चलाना या दमनकारी अध्यादेश जारी करना मुश्किल बात नहीं है, लेकिन इससे कोई मतलब हल नहीं होता और यदि कोई प्रभाव होता भी है, तो वह बड़ा ही अस्थायी होता है। किसी भी हालत में, इनसे लेखकों के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आता, जो प्रेस के खुले मंच से वंचित होने पर प्रायः गोपनीय प्रचार में प्रवृत्त हो जाते हैं।"
इसलिए, गाँधीजी लोकमत को प्रेस पर अंकुश लगाने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम मानते थे। उन्होंने लिखा है- "इसका असली उपचार स्वस्थ लोकमत है, जिसे विषैली पत्र-पत्रिकाओं को संरक्षण देने से इन्कार कर देना चाहिए। प्रेस की स्वतंत्रता एक मूल्यवान विशेषाधिकार है, जिसे कोई देश छोड़ नहीं सकता। लेकिन, बहुत हल्की रोक-थाम के अलावा कोई कारगर कानूनी रोक न हो, जो नहीं होनी चाहिए, तो जैसा मैंने ऊपर कहा है, आंतरिक रोक का होना जरूरी है, जो न असंभव है और न उस पर आपत्ति की जानी चाहिए।" स्वाधीनता की स्थिति में सरकार के लिए प्रेस पर नियंत्रण रखना लगभग असंभव है। यह काम जनता का है कि वह अखबारों पर कड़ी नजर रखे और उन्हें सही रास्ते पर चलाएं। प्रबुद्ध जनता को सदैव भड़काने वाले या अश्लील अखबार को संरक्षण देने से इंकार कर देना चाहिए।
इस प्रकार गाँधीजी की पत्रकारिता और राजनीति का लक्ष्य एक ही था। उनकी पत्रकारिता उनके राजनीतिक और वैचारिक लक्ष्यों की पूर्ति का महत्त्वपूर्ण साधन थी और वह लोक-सेवा एवं देश-सेवा के परिधि में रहकर अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकती थी। 1920 में 'यंग इंडिया' असहयोग आंदोलन का प्रमुख पत्र बन गया। फिर भी 18 दिसंबर 1920 के अंक में गाँधीजी ने घोषित किया कि 'यंग इंडिया' के कॉलम असहयोग आंदोलन के विरूद्ध मत व्यक्त करने वालों के लिए सदैव खुले हुए हैं।।

