विज्ञापन एवं नैतिकता



विज्ञापन एवं गांधी के नैतिकशास्त्र


अंग्रेजी में विज्ञापन के लिए " Advertising " शब्द प्रयुक्त होता है, जो लैटिन के " Adverter " से बना है। जिसका अर्थ " मस्तिष्क का केंद्रीभूत होना " है। वास्तव में, विज्ञापन द्वारा जन सामान्य के ध्यान को किसी सामग्री अथवा सेवा की ओर आकर्षित किया जाता है।



" फ्रेंक जेफकिन्स " ने क्रय और विक्रय योग्य वस्तुओं को जनता तक पहुंचाने के माध्यम को विज्ञापन माना है। उन्होंने सस्ते दर पर उत्पादित सामग्रियों एवं सेवाओं के उचित ढंग से प्रभावकारी प्रस्तुतीकरण को विज्ञापन कहा है। विज्ञापन के अंतर्गत किसी प्रकार का वह कार्य सम्मिलित है, जिसमें विक्रय योग्य वस्तुओं या सेवाओं के विक्रय को प्रोत्साहन हेतु सूचना का प्रसार किया जाता है।



विज्ञापन एक जरूरी प्रक्रिया है। विज्ञापन अब प्राप्त नहीं किया जाता। विज्ञापन की जगह बेची जाती है या उसका विपणन किया जाता है। " इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका " के अनुसार किसी वस्तु के विक्रय अथवा किसी सेवा के प्रसार हेतु मूल्य चुका कर की गई घोषणा ही विज्ञापन है। वास्तव में, यह प्रचार का एक प्रभावशाली साधन है, जिसके द्वारा वस्तुओं और सेवाओं के लिए विक्रय का विकास होता है। विक्रय-व्यवस्था में विज्ञापन वस्तु का परिचय कराने, उसकी विशेषताएं तथा उसके लाभ बताने का कार्य संपादित कर ग्राहकों को आकृष्ट करता है।



उत्पादित वस्तु के ब्रांड को लोकप्रिय बनाना तथा कंपनी के नाम को जनता के मन-मस्तिष्क में जमाने का कार्य विज्ञापन के कारण, वही वस्तु जरूरत बन चुकी है, भविष्य में कहीं अनिवार्य न बन जाए। इस परिवर्तन के मूल में विज्ञापन है। इस तरह स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति, वस्तु या सेवा को प्रस्तुत करने वाली मुद्रित सामग्री, लिखित शब्द, बोले गए शब्द या चित्रांकन विज्ञापन है। जिसे विज्ञापनदाता अपने खर्चे पर बिक्री, प्रयोग, वोट या अन्य प्रकार की सहमति प्राप्त के लिए खुल्लम-खुल्ला प्रस्तुत करें। विज्ञापन उद्योग का जीवन-स्तर बनता जा रहा है तथा समाचार पत्रों का आधार भी।



विज्ञापन का समाचार पत्र में प्रकाशित होना समाचार पत्रों के लिए आर्थिक लाभ का साधन हमेशा रहे थे। लेकिन, उनका प्रभाव सीमित था और आजादी के पहले तक इसका सांगठनिक रूप विकसित नहीं हो पाया था। वैचारिक स्तर पर इसका विरोध भी किया जाता रहा। गांधीजी की पत्रकारिता में व्यावसायिक विज्ञापनों के बहिष्कार की नीति का बहुत महत्व है, क्योंकि इसके मूल में उनका मौलिक चिंतन तो था ही, साथ ही पत्रकारिता के संसार को नैतिकता के अनुरूप ढालने का दुस्साहसपूर्ण प्रयास था।



समाचार पत्रों में विज्ञापनों के बहिष्कार का सिद्धांत न तो गांधी के युग में ही व्यावहारिक था और न आज इक्कीसवीं सदी में उसके लिए कोई स्थान रह गया है। समाचार पत्रों के लिए विज्ञापनों से प्राप्त आय उस नदी के प्रवाहमान जल के समान है, जो संजीवनी बनकर उन्हें जीवित रखती है, परंतु गांधी ने पत्रकारिता को इस आर्थिक प्रलोभनों से भरी दुनिया को ही चुनौती दी तथा व्यावहारिक रूप से यह प्रमाणित करके दिखाया कि कोई भी लोक-सेवी तथा लोकप्रिय समाचार पत्र विज्ञापनों के बिना भी सुचारू रूप से चलाया जा सकता है।



गांधी के इस चिंतन की विशेषता यह थी कि वह उनके पत्रकारिता के आरंभिक अनुभवों से उत्पन्न हुआ था। उनके आरंभिक अनुभवों ने उन्हें सिखाया कि विज्ञापनों से।आय तो होती है, परंतु वह मूल उद्देश्य से भटकाता है तथा पाठकों को भी भ्रम में रखता है। गांधी का पत्रकारिता में आगमन धन कमाने अथवा आजीविका के लिए नहीं हुआ था, अतः विज्ञापनों से होनेवाली आय के लालच में उनके फंसने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। गांधी की पत्रकारिता का आधार वही था, जो उनका राजनीति के लिए था― अपने लक्ष्यों से परिचित कराना, सत्याग्रह, अहिंसा, स्वराज्य दर्शन को जनता तक पहुंचाना, समाज की शिक्षा और सुधार की दिशाओं को स्पष्ट करना, भारतीय के रूप में अपनी अस्मिता और अधिकारों को पहचानना और उनके लिए अहिंसक संघर्ष करना आदि।



'इंडियन ओपिनियन' के आरंभ करने पर गांधी की विज्ञापन प्रकाशित करने में सहमति थी और अंग्रेजों तथा भारतीयों दोनों के लिए व्यापारिक विज्ञापनों को प्रकाशित करने का रास्ता खुला था। गांधी ने स्वयं फिनिक्स आश्रम के लिए 100 एकड़ जमीन खरीदने में विज्ञापन का ही सहारा लिया था और उनके विज्ञापन को पढ़कर ही जमीन के मालिक उनसे संपर्क में रहते थे तथा उसका पूरा विवरण उनके पास रहता था। गांधी जी का अनुमान था कि 'इंडियन ओपिनियन' के कर्मचारी और कार्यकर्ता फिनिक्स की 100 एकड़ जमीन पर खेती करके तथा समाचार पत्र की बिक्री से होने वाली आय से अपनी आजीविका चला सकेंगे, परंतु तीन-चार वर्षों में ही स्पष्ट हो गया कि वे जमीन का पूरा उपयोग नहीं कर पाए तथा समाचार पत्र भी स्वावलंबी नहीं हो पाया। गांधी ने 14 सितंबर, 1912 के 'इंडियन ओपिनियन' में स्वयं ही लिखा कि इन परिस्थितियों में 30 नवम्बर,1909 को " रतन टाटा " द्वारा दान रूप में दी गई 25,000 हजार की राशि से इसके बंद होने का संकट टला और नैया पार हुई।



इस पत्र में गाँधी जी ने विज्ञापन प्रणाली की बुराइयों पर प्रकाश डाला तथा "अपने विषय में " शीर्षक टिप्पणी में लिखा― " हमने यह निर्णय कर लिया है कि अपने आदर्शों पर चलते हुए हम व्ययों की पूर्ति के लिए विज्ञापन नहीं ले सकते। हमारी समझ में विज्ञापन की प्रणाली ही बुरी है, क्योंकि इससे अनुचित प्रतिस्पर्धा फैलती है और हम ऐसी प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध हैं। वह बहुधा बड़े पैमाने पर भ्रांत विचारों का साधन बन जाती है। इसके अतिरिक्त यदि हम इस पत्र के द्वारा अपना पूरा निर्वाह करना ठीक नहीं मानते तो हमें यह अधिकार नहीं है कि हम अपने स्थान का उपयोग विज्ञापनों के लिए करें और अपना समय उन्हें तैयार करने में लगाएं। अभी तक हम जो विज्ञापन लेते थे, उनके चुनाव में विवेक का उपयोग करते थे और ऐसे अनेक विज्ञापन अस्वीकृत करते रहे हैं, जो हमारी मंतव्यों से संगत नहीं होते थे। आशा है कि हमारे जो मित्र और हित-चिंतक आज तक हमारी सहायता करते रहे हैं, वे हमारे विज्ञापन छापना बंद कर देने का कुछ और अर्थ नहीं समझेंगे।"




अपने राजनीतिक गुरु " गोपाल कृष्ण गोखले " के आदेश पर गांधी जी ने भारत तथा वर्मा की यात्रा की और तीसरे दर्जे के रेल के डिब्बे में यात्रा करके भारत की जनता को निकट से देखा। इसी बीच चंपारण के किसानों का मामला उनके सामने आया और गांधी चंपारण गए तथा गिरफ्तार किए गए व बाद में छोड़ दिए गए। इस समय वह किसी समाचार पत्र के संपादक नहीं थे। परंतु समाचार पत्रों में यदा-कदा लिखते थे।



उन्होंने " हिंदुस्तान " के संपादक के आग्रह पर दिवाली अंक में लिखा, जो नवंबर, 1917 में " समाचार-पत्र " शीर्षक से छपा। यह लेख दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों पर आधारित था जिसमें विज्ञापन के बारे में लिखा― " आजकल समाचार पत्र मुख्य रूप से चंदे पर नहीं विज्ञापनों की आय पर निर्भर हो गए हैं, जिसका परिणाम हानिकारक रहा है। जो समाचार पत्र मदिरा-पान तथा तंबाकू के विरुद्ध लिखते हैं, वह उसकी प्रशंसा तथा बिक्री स्थानों के विज्ञापन छापते हैं। दवाइयों के विज्ञापनों से तो जनता का बहुत नुकसान हुआ है, जिसे मैंने अपनी आंखों से देखा है। गांधी जी कहते हैं कि यह परिपाटी पश्चिम से आई है। चाहे कितने भी प्रयत्न क्यों न करने पड़ें, लेकिन हमें विज्ञापनों के इस रिवाज को खत्म करना चाहिए अथवा विज्ञापनों में बहुत सुधार करना चाहिए। प्रत्येक समाचार-पत्र का यह कर्तव्य है कि वह विज्ञापनों पर अंकुश रखें। इस तरह गांधी जी विज्ञापन को पश्चिमी सभ्यता तथा व्यापारिक-नीति का अभिशाप मानते थे और उसके हानिकारक प्रभाव से भारतीय समाज को बचाना चाहते थे।




गांधीजी ने अंग्रेजी का " यंग इंडिया " तथा गुजराती के " नवजीवन " इन दोनों समाचार पत्रों में भी विज्ञापन के संबंध में अपनी पुरानी नीति का निर्वहन किया। " नवजीवन "  के 14 सितंबर, 1919 के अंक में गांधी जी ने " विज्ञापन क्यों नहीं लेते..?? " शीर्षक से टिप्पणी लिखते हुए स्पष्ट किया कि जो वस्तुएं देश के लिए उपयोगी है तथा स्वदेशी हैं, उनका विज्ञापन 'नवजीवन' में नि:शुल्क छपेगा। विज्ञापन जब पैसे देकर छपते हैं, तब उनमें से 11% वस्तुएं बेकार होते हैं और दवाइयों के विज्ञापनों में तो धोखा ही होता है और विज्ञापन से वस्तुओं की कीमत भी बढ़ जाती है। इसी तरह गांधी ने 'यंग इंडिया' में अनेक बार विज्ञापन के प्रश्न को उठाया और उसे भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से पाठकों के सम्मुख रखा।



 'यंग इंडिया' के 8 अक्टूबर, 1919 के अंक में विज्ञापन नीति तथा पत्रकारिता की शुद्धता को स्पष्ट करते हुए गांधी जी ने लिखा― यंग इंडिया के मालिकों ने विज्ञापन लेना बिल्कुल बंद कर देने का निश्चय किया है। मेरा तो विचार है कि अखबारों को पूरी तरह विज्ञापन के बिना चलाना चाहिए और मैं जानता हूं कि मालिकों ने मेरे विचार को पूर्णत: स्वीकार नहीं किया है, लेकिन वे मुझे प्रयोग करने की छूट देने को तैयार हैं। मैं ऐसे लोगों से, जो 'यंग इंडिया' को विज्ञापनों के इस अभिशाप से मुक्त देखना चाहते हैं, इस प्रयोग को सफल बनाने की प्रार्थना करता हूँ। गुजराती 'नवजीवन' से यह संभावना प्रकट हो चुकी है कि किसी अखबार के पृष्ठों को विज्ञापनों से भरे बिना भी उसे चलाया जा सकता है।"




प्रबुद्ध पाठक गांधी के साथ दिखते हैं। अश्लील विज्ञापन के प्रकाशन पर गांधजी गहरी चोट करते हैं और अनैतिक मानते हुए संपादक द्वारा स्वयं, पत्रकार-संघ अथवा सरकार द्वारा उस पर अंकुश लगाने तक का प्रस्ताव करते हैं। 'अश्लील विज्ञापन' को लेकर गांधी जी इतने आहत थे कि 23 जून, 1927 को 'यंग इंडिया' में " अश्लील विज्ञापन " शीर्षक से ही टिप्पणी लिखी और उसकी भर्त्सना के साथ 'पत्रकार संघ' के हस्तक्षेप का आवाहन किया।


गांधी जी लिखते हैं - "प्रतिष्ठित अखबारों में भी मैं अक्सर बहुत ही अश्लील ढंग के विज्ञापन देखता हूं। शायद ही कोई ऐसा अखबार हो जिसमें शराब और ऐसी औषधि का विज्ञापन न छपता हो, जिसका उद्देश्य युवा मन को दूषित करना ना हो।

ऐसे संपादक और अखबार-मालिकों को भी, जो खुद बहुत शुद्ध चरित्र वाले और शराबखोरी, धूम्रपान तथा इसी तरह की अन्य बुराइयों के विरोधी हैं, ऐसे विज्ञापनों से पैसा कमाते हुए कोई क्लेश नहीं होता। जिनका उद्देश्य स्पष्ट ही ऐसी बुराइयों का प्रचार करना होता है।



हमारा एक " पत्रकार-संघ " है, क्या यह संभव नहीं है कि उस संघ के जरिए पत्रकारिता से संबद्ध सभी लोगों से एक ही तरह के नैतिक नियमों का पालन कराया जाए और ऐसा लोकमत तैयार किया जाए जो किसी भी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका के लिए निर्धारित नैतिक नियमों का उल्लंघन करना असंभव बना दे। गांधीजी नैतिकता और लोकहित के आधार पर विज्ञापनों की भी परीक्षा करते हैं। वे ए. जोसेफ को 2 अप्रैल, 1926 के पत्र में लिखते हैं― " जो चीजें राष्ट्र के लिए हानिकारक हैं, लोकहित को ध्यान में रखकर चलने वाले पत्रों को उनके विज्ञापन बिल्कुल नहीं लेने चाहिए।



 " हरिजन साप्ताहिक " को गांधी जी ने अंग्रेजी व हिंदी में निकाला तथा बाद में कुछ अन्य देशी भाषाओं में भी निकाला। 'हरिजन' का पहला अंक 11 फरवरी, को तथा हिंदी में 23 फरवरी, 1933 से प्रारंभ हुआ। यद्यपि इसका प्रकाशन अस्पृश्यता-निवारण के लिए हुआ था, लेकिन गांधी इस बात को लेकर सचेत थे कि इसे भी बिना विज्ञापन के निकाला जाए। इस वजह से वह ग्राहकों से आग्रह करते हैं कि वे अपने चंदे शीघ्र भेजें जिससे वह अपना खर्च निकाल सके। गांधी जी 'हरिजन' अंग्रेजी में विज्ञापन में अश्लीलता तथा झूठ की समस्या को उठाते हैं और इस बुराई को पूर्णत: खत्म करने का आह्वान करते हैं। 24 अगस्त, 1935 को 'हरिजन' में " झूठे विज्ञापन " शीर्षक से गाँधी जी चाय के एक झूठे विज्ञापन का उदाहरण देते हैं और तीस-तीस प्याले चाय पीकर जवान  दिखने की बात को नितांत भ्रामक और झूठ मानते हैं। गांधी जी कहते हैं कि विज्ञापन देते समय हमें सच्चाई का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।



विज्ञापन के बारे में 'हरिजन' अंग्रेजी में अनेक टिप्पणियां मिलती हैं। पहली टिप्पणी अश्लीलता के संबंध में 'निवेदन शीर्षक' से 27 जुलाई, 1915 को छपी है। एक संपादक ने एक अन्य अखबार में छपे दवाइयों के अश्लील विज्ञापनों की कतरनें भेजी थी। गांधीजी चाहते हैं कि संपादक और प्रबंधक अपने-अपने अखबारों के विज्ञापनों का अध्ययन करें और आपत्तिजनक विज्ञापनों को छांटकर बाहर करें। गांधी प्रांतीय पत्रकार संघों को भी कहते हैं कि वे अखबारों को संयम और विवेक से काम करने को राजी करें, क्योंकि उनसे सार्वजनिक नैतिकता तथा अश्लीलता की भावना की रक्षा की अपेक्षा की जाती है।



" अश्लील विज्ञापन " शीर्षक से 14 नवंबर, 1936 के 'हरिजन' के अंक में गांधी जी संपादकीय लिखते हैं। " अमृत कौर " ने उन्हें एक पत्रिका में छपा अश्लील विज्ञापन भेजा,  जिसमें नारी शरीर के सौंदर्य, नववधू का नया ज्ञान तथा संभोग आदि पर पुस्तकों का विज्ञापन था। इन पुस्तकों के नाम थे - " नारी शरीर की रमणीय सौंदर्य, नववधू के लिए नया ज्ञान तथा कामालिंगन या संभोग-सहचर को तृप्त करने की विधि "। गांधी ने इन विज्ञापनों से स्त्री की अस्मिता का प्रश्न उठाया तथा यह भी कि स्त्रियां क्यों अपने सौंदर्य और शरीर का भोग पुरुषों से करना चाहती है..?? वे क्यों स्वयं को अबला मानती हैं..?? स्त्री को स्वयं ही शील की रक्षा करनी होगी और ऐसे विज्ञापनों के विरुद्ध अभिराम संघर्ष करना होगा।



ऐसे विज्ञापनों को रोकने के लिए एक पाठक ने गांधीजी को सेंसरशिप का प्रयोग करने की सलाह दी, परंतु गांधीजी ने " बहिष्कार " के मंत्र का प्रयोग करने का मार्ग सुझाया। गांधी का विचार था कि ग्राहक पहले अखबारों के संपादकों का ध्यान ऐसे अश्लील विज्ञापनों की ओर खींचें और वे फिर भी बाज न आए तो ऐसे अखबारों को खरीदना बंद कर दें। गांधी अस्पष्ट रुप से चाहते थे कि इस तरह के विज्ञापनों के विरुद्ध एक जोरदार जनमत तैयार किया जाए। गांधी ने विज्ञापन के संबंध में साथी पत्रकारों से आचार-संहिता स्वीकार करने की अपील की थी।



'यंग इंडिया' के अंक में 8 अक्टूबर, 1919 को गांधी जी ने लिखा― " यंग इंडिया के मालिकों ने विज्ञापन न लेने का निर्णय किया है। मैं जानता हूं की पूर्णत: मेरे विचार से सहमत नहीं हुए हैं कि समाचार पत्र को बिना विज्ञापन के चलाया जाना चाहिए। लेकिन मुझे प्रयोग करने देने को इच्छुक जान पड़ते हैं। यद्यपि 'यंग इंडिया' के मालिकों के लिए यह एक प्रयोग था, परंतु गांधी इस निर्णय पर पत्रकारिता के क्षेत्र में बरसों काम करने के बाद पहुंचे थे। उन्होंने पाठकों से 'यंग इंडिया' को विज्ञापन के अभिशाप से मुक्त करने की अपील की। इस तरह विज्ञापन के विरुद्ध होने के गांधी जी के विचार के पीछे सामाजिक सेवा के प्रति उनकी चिंता थी। 


उनका मानना था कि यदि कोई उत्पाद गुणवत्ता में सही है तब उसे विज्ञापन पर पैसे खर्च करने की क्या जरूरत है। समुदाय की भलाई के लिए सभी पत्रों को उस उत्पाद की उपयोगिता बतानी चाहिए। इस तरह गांधी की पत्रकारिता सेवा की पत्रकारिता थी। " काका साहेब कालेलकर " ने इस बात का उल्लेख किया है कि गांधीजी ने अपने पत्र में एक " पंपिंग सेट " का प्रचार किया जिसके बारे में वे समझते थे कि इससे ग्रामीण इलाके के लोगों को काफी लाभ होगा। देश के बहुसंख्यक किसान के हित के लिए गांधी अपने पत्र में विशेष लेख प्रकाशित करते थे। वे किसानों को धान कूटने के उस मशीन के बारे में बताते थे, जो कि बिना किसी विशेष घर्षण के विटामिन युक्त चावल देती थी। वे और उनके सहयोगी लगातार  चरखा और इसके द्वारा कपड़ा बुनने के बारे में बात करते थे। 



तीस के दशक तक समाचार पत्रों में विज्ञापन, आयातित वस्तुओं का ही, मुख्य रूप से होता था। सिगरेट विज्ञापन का सबसे बड़ा मद था एवं उसके बाद बारी साबुन की थी। समाचार पत्र के प्रतिनिधियों को विभिन्न पार्टियों से विज्ञापन प्राप्त करने के लिए रात-दिन मेहनत करनी पड़ती थी।



                          ―  द्वितीय विश्व-युद्ध तक सरकारी या गैर-सरकारी पार्टियां विज्ञापन के महत्व के प्रति जागरूक हो गई। गांधी आर्थिक सिद्धांतों के आधार पर भी अपनी विचारधारा का समर्थन करते थे कि- विज्ञापन में जो रुपया लगता है, उससे उत्पाद की लागत बढ़ जाती है । जो एक तरह से अप्रत्यक्ष कराधान है, जिसे भारत की गरीब जनता बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं।।

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